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इस ब्लॉग का मुख्य मकसद नयी पीढ़ी में नई और विवेकपूर्ण सोच का संचार करना है|आज के हालात भी किसी महाभारत से कम नहीं है अतः हमें फिर से अन्याय के खिलाफ खड़ा करने की प्रेरणा केवल महाभारत दे सकता है|महाभारत और कुछ सन्दर्भ ब्लॉग महाभारत के कुछ वीरो ,महारथियों,पात्रो और चरित्रों को फिर ब्लोगिंग में जीवित करने का ज़रिया है|यह ब्लॉग महाभारत के पात्रों के माध्यम से आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है|

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Thursday, January 05, 2012

महाभारत और गुरुभक्त एकलव्य : महाभारत ब्लॉग १४

महाभारत और कुछ सन्दर्भ में मैं आज उस पात्र की चर्चा करने जा रहा हूँ जिसका महाभारत युद्ध में कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं था फिर भी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन का यह व्यक्ति विकल्प हो सकता था| वो व्यक्ति निषाध राजकुमार एकलव्य था जिसकी गुरु भक्ति और समर्पण भावना ने आज भी शिक्षा जगत को अचंभित किया हुआ है| कहते है कि 'गुरु के प्रत्यक्ष प्रशिक्षण के बिना ज्ञान प्राप्ति मुश्किल है ' परन्तु एकलव्य न केवल आत्म प्रशिक्षण की एक मिसाल है अपितु जो व्यक्ति स्वयं ही चीज़े सीखना और जानना चाहता है, उसके लिए एकलव्य प्रेरणास्त्रोत है| आज भी शिक्षा के क्षेत्र में एकलव्य बड़ा ही सम्मानित नाम है और कई विध्यार्तियों के लिए आदर्श है|
एकलव्य का जन्म भारतवर्ष के निषाध कबीले में निषाधराज हिरन्याधनुष के घर हुआ था | वैसे तो एकलव्य के जन्म के बारे में कई धारणाएं प्रचलित है | कहीं लिखा है कि एकलव्य वासुदेव के भाई देवाश्रवा और निषाध कन्या का कानन पुत्र था जिसको हिरन्याधनुष ने पाला-पोसा था जिस कारण वो कृष्ण का रक्त संबंधी हुआ और कोई कहता है कि वो श्रुतकीर्ति और हिरन्याधनुष की संतान था और श्रुतकीर्ति की पुत्री रुक्मणी जिसका विवाह वासुदेव कृष्ण से हुआ था | अतः वो वासुदेव कृष्ण का साला हुआ| परन्तु उस निषाध राजकुमार की प्रतिभा और समर्पण भावना किसी परिचय की मोहताज नहीं है|
माता के मना करने के उपरांत भी , छोटा बालक एकलव्य आँखों में धनुर्धारी बनने का ख्व़ाब लेकर गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचा | पर द्रोणाचार्य ने बालक एकलव्य को 'निषाध' होने के कारण शिक्षा और प्रशिक्षण देने से मना कर दिया क्योकि वो केवल क्षत्रिय राजकुमारों को ही शिक्षित करते थे | यह एक तरह का भेदभावपूर्ण रवैया हो सकता है परन्तु इसके पीछे उनका मानना था कि समाज की रक्षा के लिए क्षत्रिय आरक्षित है और अगर अन्य वर्गों को उनका दिया हुआ शस्त्रों का ज्ञान मिल गया तो वो क्षत्रियो के विरुद्ध इसका दुरूपयोग कर सकते है और अगर समाज में वर्ग संघर्ष पनपेगा तब समाज की रक्षा का मुख्य दायित्व अधूरा रह सकता था| पर जो भी हो आज की परिस्थितियों में यह नीति भेदभावपूर्ण ही होगी क्योकि अब समानता का युग है और राजसत्ता राजाओ से छिनकर प्रजा के हाथ में आ गयी है|
अब गुरु द्रोणाचार्य से हताश और निराश ये निषाध पुत्र स्वयं ही राजकुमारों का प्रशिक्षण देखकर और मन ही मन में गुरु द्रोणाचार्य को अपना गुरु मानकर वन में धनुर्विद्या का कड़ा अभ्यास करता और गुरु में श्रद्दा बनाये रखने के लिए उसने मिटटी से गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा बना ली| वह प्रतिदिन गुरु प्रतिमा को प्रणाम करके और राजकुमारों के प्रशिक्षण को देखकर प्रत्येक गुर का बड़ी एकाग्रता और समर्पण से सीख कर अभ्यास करता| 
एक दिन गुरु द्रोणाचार्य कुरु राजकुमारों को प्रशिक्षण देने वन में ले गए वहां सभी राजकुमार बड़े मनोयोग से अभ्यास कर रहे थे कि एक कुत्ते की भौकने की आवाज ने उनकी एकाग्रता को भंग कर दिया | तब गुरु द्रोणाचार्य ने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन से उस कुत्ते की आवाज बंद करने को कहा पर जैसे ही अर्जुन कुछ कर पाता ,कुत्ते की आवाज यकायक बंद हो गयी पर जब कुत्ते को द्रोणाचार्य ने देखा तो पाया कि उस कुत्ते का मुँह बाणों से इस प्रकार बंद कर दिया गया है कि कुत्ते की भौकने की आवाज भी बंद हो गयी और कुत्ते के मुँह पर बाणों की कोई नोक भी नहीं चुभी| इतने उत्कृष्टता से बाण संधान करने के लिए प्रतंचा पर लगा बल और दूरी का सही संतुलन आवश्यक था और ऐसी उत्कृष्टता गुरु द्रोणाचार्य के किसी भी शिष्य में नहीं थी|
उस कुत्ते पर लगे बाण की दिशा में खोज करने पर द्रोणाचार्य ने देखा कि एक किशोर अत्यंत एकाग्रता से बाण चला रहा है | जब द्रोणाचार्य उस किशोर के पास गए तब उस किशोर एकलव्य ने अपने गुरु को सामने पाकर चरणस्पर्श किया | तब गुरु द्रोणाचार्य ने कहा - 'हे पुत्र ! तुम धनुर्विद्या में अत्यंत उत्कृष्ट हो , तुम्हारा गुरु कौन है '| तब गुरु के संबोधन से गदगद एकलव्य ने विनीतभाव से कहा -'हे ब्रह्मणश्रेठ ! मेरे गुरु स्वयं आप ही है '| यह सुनकर आश्चर्यचकित द्रोणाचार्य ने पूछा -'कैसे'| तब एकलव्य उन्हें मिटटी की उस प्रतिमा के पास ले गया जिसे वह गुरु मानकर अभ्यास करता था | स्वयं की प्रतिमा देखकर द्रोणाचार्य ने कहा-'हे पुत्र ! मुझे याद नहीं है कि मैंने कब तुम्हे शिक्षा दी अतः स्पष्ट रूप से कहो '| तब एकलव्य ने कहा कि जब बाल्यकाल में आपने मुझे शिष्य के रूप में ग्रहण करने से मना कर दिया था तब मैंने आपको गुरु मानकर और राजकुमारों के प्रशिक्षण को देखकर स्वयं ही अभ्यास किया है | अतः आप ही मेरे गुरु है |
किशोर एकलव्य की बातें सुनकर गुरु द्रोणाचार्य को स्नेह और रोष दोनों की अनुभूति हुई | स्नेह इसलिए कि बालक ने अपनी लगन के बलबूते ही उनके प्रत्यक्ष शिष्यों से भी बढ़कर काम किया था और फिर भी वह विनम्र भाव से गुरु का आदर करता रहा था | और रोष इसलिए कि उसने चुपके -चुपके हस्तिनापुर की युद्धशाला में राजकुमारों का प्रशिक्षण देखा था जो कि राज्य के कानून के विरुद्ध था और इस कार्य के लिए उसे राज्यदंड भी मिल सकता था |
और तभी उन्हें अर्जुन को दिया हुआ आशीर्वाद याद आ गया कि 'अर्जुन ही आर्यावर्त का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनेगा ' परन्तु एकलव्य की प्रतिभा और मेहनत ने द्रोणाचार्य के आशीर्वाद की राह में रोड़े अटका दिए थे और एकलव्य के रहते अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं था|

अतः अपने आशीर्वाद को पूरा करने और चुपके से देखे गए प्रशिक्षण के फलस्वरूप मिलने वाले राजदंड से बचाने के लिए गुरु द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में एकलव्य से उसके दांये हाथ का अंगूठा मांग लिया | जिससे एकलव्य  बाण संधान करने में असमर्थ हो जाता और उसकी सीखी विद्या का कोई महत्व नहीं रहता | इस गुरुदक्षिणा को सुनकर सभी कुरु राजकुमार अचंभित रह गए पर गुरुभक्त एकलव्य ने एक ही झटके में अपना दायें हाथ का अंगूठा काट कर गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया | बस इसी पल ने इस निषाध राजकुमार को अमर कर दिया और भारतीय इतिहास में एकलव्य एक नाम ही नहीं बल्कि किवदंती बन गया |
चूकि हिरन्याधनुष मगध नरेश जरासंघ की सेना में सेनापति था अतः एकलव्य भी जरासंघ की सेना में शामिल हुआ और उसने जरासंघ के आदेश पर रुक्मणी के शिशुपाल के साथ विवाह के लिए , शिशुपाल और रुक्मणी के पिता भीष्मक के मध्य संदेशवाहक का कार्य किया और जरासंघ एवं यादवों के युद्ध में कृष्ण के हाथो मारा गया |
परन्तु आज भी कुछ समीक्षक गुरु द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा मांगना अनैतिक मानते है | पर इसी घटना ने एकलव्य को अमर कर दिया था और वैसे भी अगर एकलव्य सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होता तो निश्चित रूप से जरासंघ के पक्ष में लड़ता और अधर्म के पक्ष में लड़ने के कारण मारा भी जाता | पर उसकी कीर्ति को ग्रहण लग जाता और आज हम उसे इसतरह याद नहीं करते जिस तरह अब तक करते आये है| मैं इस महान गुरुभक्त को उसकी समर्पण भावना और गुरुभक्ति के लिए प्रणाम करता हूँ|
                                                  धन्यवाद |

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