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Wednesday, June 26, 2013

महाभारत और जयद्रथ : महाभारत ब्लॉग १८



महाभारत के महासमर में कई रथी , महारथी युद्ध लड़े । कुछ रण भूमि में वीरगति को प्राप्त हुए और कुछ जीत कर वसुंधरा पर राज करने लगे । इस जयसहिंता में कई पात्रों में से एक पात्र जयद्रथ भी है जिसका युद्ध के तेहरवे तथा चौहदवे दिन का योगदान इस युद्ध की कुटिलता व दिव्यता के संघर्ष को प्रदर्शित करता है । यह अध्याय वासुदेव कृष्ण की गुप्तचर प्रणाली और शत्रु के सभी रहस्यों को जानने की विधा को इंगित करता है । वैसे तो कृष्ण इस युद्ध में मात्र अर्जुन के सारथि थे परन्तु वास्तव में वे इस युद्ध के सारथि थे जिसकी माया के वशीभूत सभी योद्धा युद्ध में संलग्न हो अपना सब कुछ दाव पर लगाने को आतुर थे । मधुसूदन इस युद्ध में अजय योद्धा थे जिन्हें केवल और केवल धर्मजन्य प्रेम और भक्ति से जीता जा सकता था । जहाँ सभी राजन संसार में शासक थे वहीँ यह ग्वाला संसार का था जिसकी निष्ठा धर्मस्थापना के अतिरिक्त कही और नहीं थी। 


जयद्रथ सिन्धु नरेश तथा वृधाक्ष्त्र का पुत्र था । उसका विवाह कौरव राजकुमारी दुशाला के साथ हुआ था जो सौ कौरव भाइयों में एक मात्र बहिन थी । अतः दुशाला कौरवों के साथ पांडवों को भी समान रूप से प्रिय थी । चूँकि जयद्रथ पूरे कुरु वंश का दामाद था अतएव उसका कुरुओं में पर्याप्त सम्मान था ।


इतना सब होते हुए भी जयद्रथ अज्ञान व अधर्म में आकंठ डूबा हुआ था । अनैतिकता उसके आचरण की एक विशेषता बन गयी थी अतः वह अपने समान विचारों और आचरण वाले कौरवों के पक्ष में युद्ध लड़ा और केशव के माया चक्र ने फंस कर मारा भी गया । 


जब धर्म में बंधे व जुए में हारे युधिष्ठिर को काम्यक वन में वनवास के लिए जाना पड़ा | एक बार दुर्योधन ने मरुधरा के समीप स्थित वन में रह रहे पांडवों को प्रताड़ित करने के लिए जयद्रथ को भेजा । जयद्रथ ने अपने सभी साथियों यथा शिवि जनपद के राजकुमार तथा सभी सेना प्रमुखों समेत मरुधरा से पांडवों पर चुपके से आक्रमण किया तथा योजनाबद्ध पांडवों को द्रोपदी से दूर भेज दिया ।  द्रौपदी को पीछे से अकेले पाकर सिंधुनरेश जयद्रथ द्रौपदी के पास आया और उसके रूप को देख कामासक्त हो गया तथा द्रौपदी से प्रणय निवेदन कर बैठा |द्रौपदी ने गांधारी पुत्री दुशाला का पति जानते हुए जयद्रथ के इस दुह्साहस को क्षमा कर दिया परतु कामासक्त जयद्रथ ने द्रौपदी का अपहरण कर लिया |जब पांडव वन से लौटे तो अन्य व्यक्तियों ने पूरा वृतांत सुनाया तब युधिष्ठिर की आज्ञानुसार पांडवो ने जयद्रथ को युद्ध में हरा कर बंदी बना कर युधिष्ठिर के समक्ष पेश किया|तब जयद्रथ को मारने का सुझाव आया तब दुशाला के विधवा होने के भय से पांडवो ने जयद्रथ के केश काटकर सर पर पांच बालो के गुछे छोड़ दिए ताकि जयद्रथ इस अपमान को याद रखे और भविष्य में ऐसी गलती न करे |

इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए जयद्रथ ने महादेव शिव की कठिनतम तपस्या की । शिव शंकर जो आशुतोष , नीलकंठ , शम्भू , अविनाशी , गंगाधर , महादेव और कैलाशी है ; ने जयद्रथ की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे एक आयुध दिया जो एक दिन तक अर्जुन को छोड़ सभी पांडवों को एक साथ युद्ध में रोके रख सकता था । 

जयद्रथ के पिता वृधाक्ष्त्र ने संन्यास लेकर तपस्यारत हो एक साधु का जीवन बिताना आरम्भ कर दिया था । जब जयद्रथ अपने पिता से मिला तब उसने भीष्म के समान इच्छा मृत्यु का वरदान माँगा परन्तु यह वर देने में असमर्थ उसके पिता ने उसको वर दिया कि जिसके द्वारा उसका शीर्ष काटकर भूमि पर पटका जायेगा उसका शिर भी उसी समय सौ टुकड़ों में टूटकर बिखर जायेगा ।


जयसहिंता के अनुसार युद्ध के तेहरवें दिन कौरव सेना के प्रधान सेनापति आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने का विचार रखा ताकि युद्ध समाप्त हो जाये और पांडव हार जाये अतः उन्होंने युद्ध के भयंकरतम व्यूहों में एक 'चक्रव्यूह ' की रचना करने का विचार किया|वैसे युद्ध में कई युद्ध व्यूह उपयोग आते थे जैसे "सर्पव्यूह","कुर्मव्यूह" आदि पर 'चक्रव्यूह ' सर्वाधिक भयंकर और दुर्जेय था|परन्तु पांडवों में अर्जुन और उनका सारथि मधुसूदन प्रत्येक व्यूह को तोडना जानते थे चाहे वो 'चक्रव्यूह ' क्यों न हो|अतः गुरु द्रोणाचार्य और दुर्योधन ने मिलकर सुशर्मा और उसके भाई को अर्जुन युद्ध लड़ते लड़ते उसे शेष पांडवो से दूर ले जाने के लिए कहा|


तेहरवे दिन सुबह सुशर्मा अर्जुन को लड़ते लड़ते दूर ले गया और अर्जुन की अनुपस्थिति में गुरु द्रोण ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने हेतु "चक्रव्यूह " रच डाला |पर वीर बालक अभिमन्यु ने,जिसकी वय बमुश्किल १६-१७ वर्ष होगी , चक्रव्यूह को तोड़ने की कला का रहस्योदघाटन करते हुए पांडव सेना की कमान संभाली|उसने अपने ताऊश्री युधिष्ठिर और भीम को अपने पीछे आने को कहा और 'चक्रव्यूह ' में घुस गया पर सिन्धु नरेश राजा जयद्रथ, जिसे एक दिन युद्ध में पूरी पांडव सेना को रोक सकने का वरदान प्राप्त था,ने युधिष्ठिर ,भीम इत्यादि को रोक लिया और अभिमन्यु को चक्रव्यूह में जाने दिया|अभिमन्यु में चक्रव्यूह को भेद डाला था और इसके प्रहरी दुर्योधन पुत्र लक्ष्मण और दुशासन पुत्र को मार डाला था |इसके उपरांत उसने अश्मक पुत्र,शल्य पुत्र रुध्मराथा ,द्रिघ्लोचन ,कुन्दवेदी ,शुसेना,वस्तिय आदि कई वीरो को यमराज के पास पंहुचा दिया|उसने द्वन्द युद्ध में कर्ण जैसे महारथी को घायल कर दिया और अश्वत्थामा ,क्रिपाचार्य और भूरिश्रवा जैसे रथियो को पराजित कर दिया|पर अपने प्रिय पुत्र लक्ष्मण की मृत्यु से बोखलाए दुर्योधन ने खतरे को भांपते हुए सभी महारथियों को बालक अभिमन्यु पर एक साथ प्रहार करने को कहा जिसके परिणामस्वरूप कर्ण,अश्वत्थामा ,भूरिश्रवा ,क्रिपाचार्य,द्रोणाचार्य ,शल्य,दुर्योधन,दुशासन जैसे महारथियों ने एक साथ अभिमन्यु पर प्रहार किया और उसके अस्त्र-शस्त्र समाप्त करवा दिए|फिर कर्ण ने उस बालक के रथ को तीर से तोड़ डाला और उस निहत्थे बालक पर सभी महारथी एक साथ टूट पड़े|वो निहत्था बालक रक्त की अंतिम बूँद तक इन महारथियों से रथ के पहिये को उठा कर लड़ा पर तलवारों ने उसकी जान ले ली|और फिर जयद्रथ ने बालक अभिमन्यु के शव को पाँव से मारा |"यह सब उसी प्रकार से था जैसे एक सिंह को सौ सियारों ने घेर कर मार डाला और फिर उस बहादुरी का जश्न मनाया हो|"

बालक अभिमन्यु के वध के लिए जयद्रथ ने अपने वरदान का प्रयोग किया जो किसी भी दुरात्मा का मुख्य लक्षण है । श्री मैथली शरण गुप्त की कृति जयद्रथ वध में अभिमन्यु को वीरों के मध्य लड़ते हुए इस प्रकार छंदित किया है -
"कुछ प्राण भिक्षा मैं न तुमसे मांगता हूँ भीती से ;
बस शस्त्र ही मैं चाहता हूँ धर्मपूर्वक नीति से । 
कर से मुझे तुम शस्त्र देकर फिर दिखाओं वीरता ;
देखूं , यहाँ फिर मैं तुम्हारी धीरता , गंभीरता । "

अपने पुत्र अभिमन्यु के कायरता पूर्वक वध के लिए अर्जुन ने जयद्रथ को उत्तरदायी मानते हुए प्रतिज्ञा की कि - "मैं कल सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध कर दूंगा और अगर मैं ऐसा न कर पाया तो अग्नि कुंड में कूद कर जान दे दूंगा । "
अर्जुन की प्रतिज्ञा के बारे में जान कर जयद्रथ अत्यंत भयभीत हो गया । और अर्जुन के मुख से अपने लिए ऐसी प्रतिज्ञा सुन कर कोई भी महारथी भयभीत हो जाता परन्तु जयद्रथ का दुर्भाग्य इतना प्रबल था कि अर्जुन का सखा कृष्ण उसका सारथि था जिसके रहते अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी होकर ही रहती । 
किन्तु अर्जुन की प्रतिज्ञा से दुर्योधन बड़ा ही प्रसन्न हुआ क्योंकि उसे द्रोणाचार्य के व्यूह पर पूरा विश्वास था कि द्रोण के रहते अर्जुन जयद्रथ तक नहीं पहुँच पायेगा और स्वयं ही आत्मदाह कर लेगा । 
द्रोणाचार्य ने अर्जुन से जयद्रथ की सुरक्षा हेतु तीन व्यूहों की रचना की । अर्जुन समेत सभी पांडव इन व्यूहों को तोड़ने के लिए कटिबद्ध थे । पूरे दिन घमासान युद्ध हुआ । युद्ध में कौरव सेना की पांच वाहिनियाँ पूरी तरह से ध्वस्त हो गयी । फिर भी द्रोणाचार्य का व्यूह पांडवों के लिए अभेद्य सिद्ध हो रहा था । ऐसी स्थिति में सूर्य अस्त होने को था ही और जयद्रथ एवं अर्जुन के मध्य पूरी कौरव सेना बाधक बन कर खड़ी थी । तब ही वासुदेव कृष्ण ने अधर्म को शक्तिशाली होते देख अपनी माया का पासा फेंका । योगीश्वर श्री कृष्ण ने अपनी योगमाया द्वारा सूर्य को ग्रहण लगा दिया और सूर्य अस्त हो गया ऐसा जान कौरव सेना व जयद्रथ में उत्साह की लहर दौड़ गयी । जयद्रथ अपनी विजय के मद में अँधा हो अर्जुन के पास आया तभी कृष्ण ने योगमाया का अवसान किया और अर्जुन से जयद्रथ वध को कहा । साथ ही उसे जयद्रथ के पिता के वरदान का रहस्य बताते हुए पशुपात अस्त्र का प्रयोग करने को कहा । पशुपात अस्त्र के प्रयोग से जयद्रथ का शिर तपस्यारत उसके पिता की गोद में पड़ा । आस्मिकता के भाव में उसके पिता उठ खड़े हुए और जयद्रथ का शिर भूमि पर गिर गया । उसके पिता के शिर के खंड खंड हो गए । इसप्रकार वृधाक्ष्त्र का वरदान उसके लिए ही शाप सिद्ध हुआ । 
इस पूरे प्रकरण से ग्वाले गोबिंद की गुप्तचर प्रणाली का भी पता लगता है जो युद्ध क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण है । इसी प्रणाली के द्वारा वासुदेव कृष्ण ने जयद्रथ के रहस्य को अर्जुन के सामने उद्घाटित कर अर्जुन के प्राण बचाए । 
महत्वपूर्ण ये है कि अधर्म चाहे कितनी भी वरदान की ओट में छिप जाए , चाहे कितने भी योग्यतम व्यक्तित्व मिलकर अधर्मी की रक्षा का व्यूह रचे परन्तु धर्म का व्यूह सर्वोच्च ही रहेगा और धर्म के पास सदैव ही कृष्ण जैसा अतिमानव उपस्थित रहेगा । आज संसार में अनैतिक आचरण वाले और अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करने वाले अनेक जयद्रथ हैं परन्तु जब जब ये धर्म की हानि करेंगे , कृष्ण जैसा रक्षक सदैव धर्म की रक्षा करेगा । 
धन्यवाद । 







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