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इस ब्लॉग का मुख्य मकसद नयी पीढ़ी में नई और विवेकपूर्ण सोच का संचार करना है|आज के हालात भी किसी महाभारत से कम नहीं है अतः हमें फिर से अन्याय के खिलाफ खड़ा करने की प्रेरणा केवल महाभारत दे सकता है|महाभारत और कुछ सन्दर्भ ब्लॉग महाभारत के कुछ वीरो ,महारथियों,पात्रो और चरित्रों को फिर ब्लोगिंग में जीवित करने का ज़रिया है|यह ब्लॉग महाभारत के पात्रों के माध्यम से आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है|

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Sunday, September 30, 2012

महाभारत और धर्मराज युधिष्ठिर : महाभारत ब्लॉग १७

महाभारत की पौराणिक कथा में सबसे पवित्र किरदार युधिष्ठिर को माने तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी | वैसे तो सब मधुसूदन की माया का खेल है , पर इस माया रुपी कथा सरिता में भी युधिष्ठिर ही मोती बनकर निकला है | जिस प्रकार रामायण कथा में श्री राम सदैव मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये उसी प्रकार युधिष्ठिर भी महाभारत कथा में मर्यादा पुरुषोत्तम ही रहे बस समय के अनुसार घटनाक्रम थोडा बदल गया | क्योकिं समय के साथ पाप, पुण्य,मर्यादा पुरुषोत्तम आदि की परिभाषायें भी बदल जाती है | साथ ही युधिष्ठिर को धर्मराज भी कहा जाता है क्योकिं उस युग में भी उसने धर्म को सदैव निभाया और सदैव ही नैतिक कार्यो का समर्थन भी किया | वैसे धर्मराज की इतनी बड़ी संज्ञा स्वयं श्री कृष्ण को भी नहीं मिली थी क्योकिं उस कान्हा ने सदैव अधर्म को पराजित किया चाहे नैतिकता के बल पर हो या अनैतिकता के बल पर | अतः कुछ अनैतिक अनुप्रयोगों के कारण इतिहास केशव को धर्मराज नहीं कहता | वैसे भी संज्ञायें मानवों के लिए होती है अति मानवों के लिए नहीं | पर जो भी हो ,उस ग्वाले का धर्मस्थापना का हठ ही युधिष्ठिर के महाभारत युद्ध लड़ने और जीतने का कारण बना | अतः हम कह सकते है कि युधिष्ठिर जहाँ प्रकृति के धर्म रूप थे वहीँ श्री कृष्ण अधर्म संहारक रूप | परन्तु दोनों ही एक दूसरे के पूरक थे क्योंकिं दोनों की प्रतिबद्धता केवल और केवल धर्म के प्रति थी | जहाँ एक ओर युधिष्ठिर धर्म के सौम्य रूप थे वहीँ दूसरी ओर श्री कृष्ण धर्म के रूद्र रूप | 

धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म माता कुंती के गर्भ से , 'धर्म' के आशीर्वाद स्वरुप 'निरोध' विधि द्वारा राजा पाण्डु के क्षेत्रज पुत्र के रूप में हुआ | वह युवराज 'सुयोधन' से वय में बड़े थे अतः सिंहासन के स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे | परन्तु राजा पाण्डु की मृत्यु ने युधिष्ठिर को न केवल धृतराष्ट्र का आश्रित बना दिया अपितु उसे अपने प्राणों का भय भी सताने लगा क्योकिं दुर्योधन किसी भी कीमत पर इस पाँच भाइयों का विनाश चाहता था | फिर भी इस विपरीत परिस्थितियों के बावजूद युधिष्ठिर ने 'धर्म' और नैतिकता का दमन नहीं छोड़ा | माना युधिष्ठिर को 'धर्मराज' होने की भविष्य में भारी कीमत चुकानी पड़ी परन्तु युधिष्ठिर के 'धर्मराज' होने के कारण ही यह महायुद्ध , धर्म और अधर्म के बीच युद्ध कहलाया जहाँ एक खेमा धर्म के पक्ष में था और दूसरा अधर्म के पक्ष में | साथ ही आज मैं युधिष्ठिर को सम्मान के साथ आपके सामने पेश कर रहा हूँ क्योकिं 'धर्मराज' होना ही इसके लिए उत्तरदायी है |

युधिष्ठिर को इन्द्रप्रस्थ का राज्य मिला और उन्होंने राजसूय यज्ञ संपन्न किया | राजसत्ता होते हुए भी युधिष्ठिर में अहंकार नहीं आया और उसने जन की भलाई में राज्य को निहित किया | उसने राज्य से सभी अधार्मिक और अनैतिक कार्यो को बंद करवा दिया और उस समय की राजप्रिय क्रीडा 'द्यूत' अर्थात जूए को भी उसने बंद करवा दिया | परिस्थितियां बदली और दुर्योधन के मंतव्य को पूरा करने हेतु राजा धृतराष्ट्र ने सम्राट युधिष्ठिर को 'द्यूतक्रीड़ा' में आने का निमंत्रण भेजा | युधिष्ठिर को भलीभांति ज्ञात था कि जूए का यह खेल अमंगलकारी ही होगा परन्तु पिता समान धृतराष्ट्र की आज्ञा की अवज्ञा करने का साहस युधिष्ठिर में नहीं था | साथ ही 'द्यूतक्रीड़ा' उस समय के क्षत्रिय समाज में युद्ध - निमंत्रण के समान था जिसे पूरा करना हर क्षत्रिय का धर्म माना जाता था अतः वह हस्तिनापुर की राजसभा में 'द्यूतक्रीड़ा' करने गया |

शकुनी जैसे खिलाडी के सामने युधिष्ठिर अपने भाइयों और पत्नी समेत सर्वस्य हार गया | परन्तु जब द्रोपदी का वस्त्रहरण हुआ तब शायद युधिष्ठिर ने धर्म की गलत परिभाषा को अंगीकार किया उसे पिता समान धृतराष्ट्र की आज्ञा और द्यूत जैसे नीच खेल की मर्यादा का तो ख्याल था परन्तु उसे 'नारी-मर्यादा' का ध्यान नहीं आया | शायदअब तक नियमों के बन्धनों से बंधा 'युधिष्ठिर का धर्म' , मधुसूदन के 'व्यापक धर्म' को बस छू ही पाया था ; उसे पूरी तरह अंगीकार नहीं कर पाया था |

परन्तु बारह वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास ने युधिष्ठिर को 'व्यापक धर्म' समझ आ गया था और यह परिघटना युधिष्ठिर के लगातार चिंतन और ऋषियों के सानिध्य के फलस्वरूप संभव हुई | ऐसे कई कहानियाँ प्रकाश में आई है जब धर्म के सार्वभौमिक चिंतन के द्वारा युधिष्ठिर ने अपनी और अपने भाइयों की जान बचाई थी |

एक ऐसी ही घटना यक्ष से जुडी हुई है | यहाँ 'यक्ष' एक प्रकार की मनुष्य प्रजाति है जोकि 'दक्षों' और 'रक्षों' से भिन्न थी और संगीत कला व् तंत्र-कला में निपूर्ण थी | इस घटना में एक बार पीने का पानी ख़त्म हो जाने के कारण भीम एक तालाब से पानी भरने जाता है किन्तु उस तालाब पर एक यक्ष अधिकार जमाता है | फलस्वरूप भीम से उसका युद्ध होता है और वह भीम को मूर्छित कर देता है | भीम की तलाश में क्रमशः अर्जुन , नकुल , सहदेव जाते है और उनका भी यही हश्र होता है | अब जब स्वयं युधिष्ठिर जाता है तब यक्ष कहता है कि अगर तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दोगे तो मैं तुम्हारे एक भाई को जाने दूंगा | युधिष्ठिर यह शर्त मानकर उसके सभी प्रश्नों का सही उत्तर देता है | जब यक्ष पूछता है कि कौनसे भाई को अपने साथ ले जाना चाहते हो तब युधिष्ठिर नकुल का नाम लेता है | यक्ष इसका कारण जानना चाहता है तो वह कहता है कि मेरी माता कुंती का वंश तो मैं चला लूँगा पर माता माद्री का वंश कौन चलाएगा?? ऐसा सुनकर यक्ष प्रसन्न होता है और उसके सभी भाइयों को मुक्त कर देता है |

यह कथा एक प्रतीकात्मक कथा है जो युधिष्ठिर कि धर्मशीलता को प्रकट करती है | ऐसी कई कथायें और भी प्रचलित है जो युधिष्ठिर को 'धर्मराज' घोषित करती है |

महाभारत के युद्ध में भी अश्वत्थामा वध की भ्रामक सूचना के अतिरिक्त युधिष्ठिर सदैव सत्यवादी ही रहे और महाभारत युद्ध के पश्चात् भी उनके जीते-जी ही स्वर्ग में जाने की कथा का उल्लेख मिलता है |अतः हम कह सकते है कि महाभारत ग्रन्थ में युधिष्ठिर ही 'संत-स्वभाव' का योद्धा रहे जो सदैव मानवता के पक्ष में युद्ध से परहेज़ करते रहे | यहाँ तक उन्होंने अहिंसा और मानवता की व्यापक हानि को मद्देनज़र् रखते हुये अपने हक के लिये होने वाले युद्ध को भी दरकिनार करना चाहा पर केशव की इच्छा के आगे मानव की इच्छा को दबना है | क्योकिं वासुदेव श्री कृष्ण ने तो उन सभी युद्धोन्मुख वीरों को पहले ही मार दिया था जब वे धर्म-च्युत हुए थे , युद्ध बस अब तो उन्हें रक्तिम करने और अग्नि देव के सुपुर्द करने का बहाना था |

वैसे युधिष्ठिर 'धर्मात्मा' अवश्य थे किन्तु 'कायर' नहीं | क्योकिं उन्हें भी 'महारथियों' में से एक माना जाता था जो किसी भी 'रथी' और 'अतिरथी' को परास्त कर सकता हो | वे एक सच्चे मानवतावादी थे जो युद्ध को समाज की 'कोढ़' समझते थे | आज के इस वातावरण में फिर हमें एक 'युधिष्ठिर-धर्म' की आवश्कता है जो विपरीत और सघन परिस्थितियों में भी सत्य और मानवता का दामन थामे रहे | साथ ही आवश्कता है केशव के 'व्यापक धर्म' की जो 'युधिष्ठिर-धर्म' को समय-समय पर संभाल सके |
धन्यवाद |

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