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इस ब्लॉग का मुख्य मकसद नयी पीढ़ी में नई और विवेकपूर्ण सोच का संचार करना है|आज के हालात भी किसी महाभारत से कम नहीं है अतः हमें फिर से अन्याय के खिलाफ खड़ा करने की प्रेरणा केवल महाभारत दे सकता है|महाभारत और कुछ सन्दर्भ ब्लॉग महाभारत के कुछ वीरो ,महारथियों,पात्रो और चरित्रों को फिर ब्लोगिंग में जीवित करने का ज़रिया है|यह ब्लॉग महाभारत के पात्रों के माध्यम से आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है|

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Sunday, August 28, 2011

महाभारत और राजा धृतराष्ट्र :महाभारत ब्लॉग ११

महाभारत के इस व्यापक एवं दूरगामी प्रभाव युक्त इस युद्ध के कई कारण गिनाये गए और इन सभी कारणों को इतिहास ने स्वयं सिद्ध भी किया परन्तु इतिहास आज भी हस्तिनापुर के राज्यसिंहासन पर बैठे उस राजा को इस युद्ध सबसे बड़ा कारण मानता है जो बाह्य एवं आतंरिक रूप से द्रष्टि हीन तो था ही अपितु विवेक हीन भी था |कुरुक्षेत्र की उस युद्ध भूमि में अगिनत वीरों ने अपना लहु बहाया हो और अनेक योद्धाओ ने अपने सर कटाए हो पर एक राजा का एक विवेकपूर्ण निर्णय न केवल युद्ध रोक सकता था अपितु इस युद्ध के दूषित प्रभावों से भी मुक्ति दिला सकता था|पर शायद उस राजा धृतराष्ट्र की बुद्धि पर भी वासुदेव कृष्ण की माया सवार थी जिसने इस पृथ्वी तात्कालिक रूप से अधार्मिक एवं असात्विक लोगो की सत्ता समाप्त कर दी थी|यूँ तो इतिहास भी युद्ध के कारणों में वासुदेव कृष्ण के अधर्म और अन्याय के विरुद्ध रोष को कभी नहीं गिनाता क्योकि शायद महायोगी कृष्ण ने इतिहास पर भी अपनी माया का स्वर्णिम जाल बिछा दिया है|
राजा धृतराष्ट्र का जन्म हस्तिनापुर के राजप्रासाद में विचित्रवीर्य के क्षेत्रज पुत्र के रूप में महारानी अम्बिका की कोख से कृष्ण द्वेपायन के निरोध द्वारा हुआ|बलशाली भुजाओ वाले इस बालक को जब माता सत्यवती ने देखा तब उसे 'राष्ट्र धारण करने वाला अर्थात धृतराष्ट्र' नाम दिया |पर धृतराष्ट्र की नियति ही थी कि वह जन्म से अँधा था जब माता सत्यवती को इस बात का पता चला तब वह निराश हुयी और वेदव्यास को निरोध द्वारा एक पुत्र और उत्पन्न करने को कहा जिसके फलस्वरूप 'पांडु' का जन्म हुआ |अब पांडु ही राज्य का उतराधिकारी चुना गया और अत्यधिक महत्वकांशी धृतराष्ट्र इस बात से बहुत परेशान रहने लगा और मन ही मन हीन भावना का शिकार भी हो गया|आखेट के समय दीन हीन होकर और दया का पत्र बनकर वह पांडु से उसका आखेट मांग लेता और कई मांगे भी वह इसी मुद्रा में पांडु से मनवाने लगा|
जब पांडु राज्यसिंहासन पर आरूढ़ हुआ तब युद्ध व अपनी स्नायु तंत्र कि कमजोरी छिपाने के लिए वो अधिक समय हस्तिनापुर के बाहर बिताता था तब उसकी अनुपस्थिति में धृतराष्ट्र राज्यसिंहासन पर बैठता था तब उस महत्वकांशी युवक धृतराष्ट्र को सिंहासन पर बैठने और दासियों के कोमल व उत्तेजक स्पर्श का चस्का लग गया|अतः वह अपने भाई पांडु को ज्यादा से ज्यादा समय हस्तिनापुर के बाहर रखने का प्रबंध करने लगा और पांडु के प्रति बनावटी प्रेम दर्शाते हुए उसके शिविर में उसकी आवश्कताओ की सभी वस्तुओ का प्रबंध करने लगा|
थोड़े ही समय पश्चात् पांडु की मृत्यु हो गयी और कोई उतराधिकारी न होने के कारण नए उतराधिकारी के आने तक धृतराष्ट्र राजा बना |चूकिं धृतराष्ट्र को अपने स्वप्न अनुरूप राज्य सिंहासन मिल गया था अतः वह अब इस हस्तिनापुर पर स्थायी सत्ता का आकांशी बन बैठा और अपने पुत्र के माध्यम से अपनी इस महत्वाकान्शा को पूरी करने की सोचने लगा ,पर नियमानुसार वह केवल हस्तिनापुर के उतराधिकारी के सिंहासन पर बैठने तक का राजा था और हस्तिनापुर का उतराधिकारी नियमानुसार राजा पांडु का बड़ा पुत्र ही होता|पर धृतराष्ट्र ने अपनी मह्त्वाकान्शा पूरी करने की ठान ही ली थी अतः उसने पांडु के पुत्र से पहले अपने पुत्र के जन्म का प्रयत्न भी किया पर अंततः युधिष्ठिर का जन्म दुर्योधन से पहले ही हो गया अतः न केवल युधिष्ठिर बड़ा कुरु राजकुमार था अपितु राजा पांडु का बड़ा पुत्र भी था अतः अब वह राज्यसिंहासन का वैध उतराधिकारी हो गया था |

राजा धृतराष्ट्र के लिए दुर्योधन अपनी इच्छा और लालसा को पूरी करने का साधन हो गया था और साथ ही वह दुर्योधन के प्रति पुत्रमोह से ग्रसित हो गया था अतः उसने पांडवो के प्रति दुर्योधन के प्रत्येक दुराचार को संरक्षण प्रदान किया |लाक्षागृह से लेकर पांडवो के साथ धूत क्रीडा में धृतराष्ट्र ने भी सहयोग दिया |उसने दुर्योधन पक्ष को संतुष्ट करने के लिए राज्य का बटवारा भी कर दिया |इतिहास दुर्योधन को द्रोपति चीरहरण और पांडवो के साथ अन्य अन्याय का दुर्योधन को कतई अधिक दोष न दे क्योकि दुर्योधन तो राजा धृतराष्ट्र का प्रतिबिम्ब ही था |जो दुर्योधन गदा युद्ध में संसार में अद्वितीय था ,उस महारथी को कायरता और दूषित राजनीति का पाठ पढ़ाने वाला शकुनी तो अवश्य था पर उन सभी शकुनी नीतियों को संरक्षित करने वाला वास्तविक व्यक्ति धृतराष्ट्र ही था|

जब युद्ध प्रारंभ हो गया तब श्री वेदव्यास ने गन्यविक पुत्र संजय को दिव्यदृष्टि प्रदान की ताकि वह धृतराष्ट्र को युद्ध का पूरा वर्णन सुना सके और सुना सके कि किस तरह वासुदेव कृष्ण का धर्म चक्र उसके पुत्रो के प्राण हरण कर रहा है!ये युद्ध का दृश्य धृतराष्ट्र के लिए नरक की यातनाओ के समान ही था क्योकि इसमें न केवल उसके द्वारा पोषित अधर्म की हार हो रही थी अपितु उसके सभी स्वप्न धराशायी हो रहे थे|जब युद्ध समाप्त हुआ तब धृतराष्ट्र के पास कुछ नहीं बचा शायद उसके अधार्मिक कर्मो का फल उसे उसी जन्म में भुगतना पड़ रहा था|
पर इस सब के पश्चात् भी उसकी कलुष भावना समाप्त नहीं हुयी और जब पांडव उससे ज्येष्ठ पिता के रूप में आशीर्वाद मांगने आये तब उसने अपनी बलिष्ठ भुजाओ द्वारा भीम को मार देने की कोशिश की पर सही समय पर वासुदेव कृष्ण द्वारा धातु की मूर्ति भीम की जगह रख देने के कारण भीम की जान बच गयी|पर जिस व्यक्ति को सौ पुत्रो का आशीर्वाद प्राप्त हो ,तथा जिस व्यक्ति को गांधारी जैसी सती नारी प्राप्त हो ,किन्तु धर्म के आशीर्वाद से वह वंचित रहे तो ये सभी आशीर्वाद और भौतिक सुख भी उसे पतन से नहीं बचा सकते|
धन्यवाद|