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Thursday, November 24, 2011

महाभारत और कृष्णा द्रौपदी:महाभारत ब्लॉग १२


महाभारत नामक इस कालजयी रचना की द्रौपदी न केवल मुख्य सूत्रधार थी अपितु प्रत्यक्षतः मुख्य कारण भी थी|कहने को तो इस अग्नि कुंड से उत्पन्न द्रुपद पुत्री का प्रतिशोध और प्रतिहिंसा युद्ध का मूल कारण रहा हो पर इतिहास तो उसके परम सखा और मायावी योगेश्वर कृष्ण और उस मधुसूदन की धर्म के प्रति आसक्ति को युद्ध का कर्ता- धर्ता व हेतु मानेगा ही|
द्रौपदी न केवल रूप लावण्य की धनी थी अपितु बुद्धि और तेज़ में अतिविशिष्ट थी| उसकी इस निर्मल और तेजोमयी काया का कारण उसका अग्नि कुंड से उत्पन्न होना व उसका क्षत्रित्व रहो हो परन्तु उस ग्वाले केशव का विशेष अनुराग और केशव की मित्रता व वत्सलता भी उसकी स्वर्णिम काया का मुख्य रहस्य था|
राजा द्रुपद ,पांचाल नरेश , बहुत ही प्रजावत्सल और न्यायप्रिय था पर जब गुरु द्रोणाचार्य ने प्रतिहिंसा की भावना स्वरुप अर्जुन व अन्य पांडवो की सहायता से गुरु दक्षिणास्वरुप द्रुपद पर आक्रमण कर उसे पराजित किया तथा उसका आधा राज्य हड़प लिया तब क्रोधाग्नि से द्रुपद जल उठा एवं उसने हस्तिनापुर व द्रोणाचार्य से प्रतिशोध की ठान ली |अपनी इसी क्रोधाग्नि में उसने अपने पुत्र धृष्ट्द्युन्म व शिखंडी के साथ द्रौपदी कृष्णा को भी अग्नि दीक्षित किया ताकि वह भी द्रोणाचार्य के विनाश में अपने भ्राताओ की सहयोगिनी बन सके|

पांचाल राजकुमारी पांचाली अत्यंत सुन्दर थी|उसके नयन अपरिमित सागर के समान गहरे,उसके गाल कमल की पंखुडियो के समान गुलाबी रंगत लिए हुए,उसके केश काले मेघो के समान स्याह,चाल मृग के समान तिरछी,कमर कमान के समान मुड़ी हुयी थी|उसका रंग सांवला था जिसके कारण वो कृष्णा कहलाई| इन सब खूबियों के अलावा भी वह सुन्दर युवती सूर्य के समान तेजोमयी थी|शायद संसार का कोई भी वीर पुरुष उसके रूप पर आसक्त हो जाये चाहे वो स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर ही क्यों न हो|पर वो गोबिंद गोपाल तो शायद इस परम सुंदरी से भी अनासक्त था उसकी आसक्ति केवल और केवल धर्म में ही थी|नहीं तो वो जो मधुसूदन सभी परम सुन्दर वस्तुओ का मालिक था ,इस कृष्णा को प्राप्त नहीं कर सकता था?
अपनी अग्नि रूपा पुत्री के लिए योग्य वर ढूंढने हेतु वासुदेव कृष्ण के परामर्शानुसार द्रुपद ने एक अत्यंत कठिन स्वयंवर की रचना की ,पर उस ग्वाले ने स्वयंवर की पूर्ति हेतु ऐसी परीक्षा रखवा दी जो केवल कर्ण और अर्जुन ही इस संसार में पूरी कर सके|
द्रौपदी कृष्णा के स्वयंवर में सभी युवराज और राजकुमार आये और स्वयंवर विजय की शर्त कुछ इस तरह रखी गयी कि "पानी में प्रतिबिंब को देखते हुए जल सतह के ऊपर घुमती हुयी मछली की आँख पर निशाना मारना"|
वहां सभी राजकुमारों ने अपनी क्षमता को परखा पर कोई भी रथी, महारथी व योद्धा इस परीक्षा में उतीर्ण न हो पाया|स्वयं देवकीनंदन कृष्ण उस स्वयंवर के रक्षक थे ताकि कोई भी योद्धा कृष्णा का अपहरण न कर सके|वहां वारणावत से लाक्षाग्रह से बच के निकले ब्राह्मन वेश धारी पांडव भी उपस्थित थे|परन्तु युधिष्ठिर भी अपने आप को इस परीक्षा के अयोग्य जानकर स्वयंवर से परायण कर गए ,लेकिन बलशाली भीम और सव्यसाची अर्जुन कृष्णा के रूप पर मुग्ध हो उठे थे अतः दोनों द्रौपदी को जीतना चाहते थे चाहे शर्त पूरी करके अथवा अपहरण करके|
परन्तु जब स्वयंवर में महारथी कर्ण परीक्षा देने आया तब वासुदेव कृष्ण ने कृष्णा द्रौपदी को इशारो में कर्ण को रुकवाने के लिए कहा क्योकि उन्हें ये आशंका थी कहीं उनकी प्रिय सखी पांचाली कर्ण द्वारा विजित न कर ली जाये |अतः द्रौपदी ने कहा -"विवाह समान कुल में होना चाहिए अतः इस सूतपुत्र से मैं कदापि विवाह नहीं करुँगी"|अपमानित और कुंठित राधेय कर्ण उस स्वयंवर सभा में फिर अपनी ही नियति पर दोष देने लगा और पांचाली से अत्यंत क्रोधित हो उठा | अब गुडाकेश अर्जुन परीक्षा देने आया और बाण की नोक से सटीक निशाना मछली की आँख पर लगाया |सारी सभा आश्चर्यचकित और क्रोधित हो गयी और उस ब्रह्मण वेशधारी अर्जुन पर आक्रमण करने को आतुर हो उठे पर महाबली भीम और अर्जुन ने मिलकर सभी राजकुमारों को धुल चटा दी|

विजित द्रौपदी को लेकर उत्साह पूर्वक भीम एवं अर्जुन माता कुंती के पास पहुचे और कहा कि माता देखिये हम पांचाली द्रौपदी को जीत लाये तब माता कुंती ने प्रश्न किया कि ये कार्य तुम में से किसका है तब दोनों ने एक साथ कहा मेरा माते!!!
असल में अर्जुन ने मछली की आँख पर निशान लगाने के कारणवश व भीम ने द्रौपदी को सभा से सकुशल साथ लाने के लिए किये युद्ध के कारणवश द्रौपदी पर अपना अधिकार जताया |पर जब विवाह की बात हुयी तब बड़े पांडव राजकुमार युधिष्ठिर के अविवाहित रहते अर्जुन अथवा भीम द्रौपदी से विवाह नहीं कर सकते थे अतः इन सभी दुविधाओ को समाप्त करने एवं इन पांचो भाइयो के परस्पर प्रेम को बनाये रखने हेतु कुंती ने पांचाली द्रौपदी की सहमति से द्रौपदी का विवाह पांचो पांडवो से करने का निर्णय किया|यह बात यहाँ उभर कर आती है कि बहुपत्नीत्व की प्रथा तो उस समय आर्य समाज में प्रचलित थी पर उत्तर पंचाल और कुछ आदिम क्षेत्रो को छोड़कर बहुपतित्व की प्रथा का अंत हो चुका था|किन्तु माता कुंती के इस एतिहासिक निर्णय ने बहुपतित्व प्रथा एवं स्त्री स्वछंदता को नवजीवन दिया | 
पांडवो ने द्रौपदी पर अपने अधिकार को संयमित एवं सीमित रखा तथा एक नियमित समय अंतराल के अन्दर ही द्रौपदी किसी एक पांडव की पत्नी व अन्य पांडवो के लिए परनारी थी अतः किसी पांडव पुत्र ने इस सीमा को नहीं लांघा|

समय बीतने के साथ ही द्रौपदी इन्द्रप्रथ की पटरानी बन गयी एवं युधिष्ठिर राज्यसूय यज्ञ करके सम्राट बन गया|परन्तु द्रौपदी को गांडीव धारी अर्जुन से विशेष प्रेम था क्योकि स्वयं अर्जुन ने उसे स्वयंवर में जीता था अतः अर्जुन के सुभद्रा के साथ विवाह से द्रौपदी प्रसन्न नहीं हुयी| साथ ही द्रौपदी अग्निकुंड से उत्पन्न हुयी एक कन्या थी अतः हस्तिनापुर,द्रोणाचार्य और उनके संरक्षक दुर्योधन पर द्रौपदी अत्यंत क्रोधित थी|
महारथी अर्जुन एवं महारथी भीम के पराक्रम तथा वासुदेव कृष्ण के परामर्श के फलस्वरूप इन्द्रप्रस्थ अत्यंत प्रगतिशील हो रहा था अतः सम्राट युधिष्ठिर ने मय दानव के सहयोग से इन्द्रप्रस्थ के वैभव को प्रदर्शित करने के लिए एक शानदार महल का निर्माण करवाया जोकि वास्तुकला व स्थापत्य कला में अद्वितीय था|साथ ही सभी खंडो के राजकुमारों एवं राजप्रतिनिधियो को इसे देखने के लिए निमंत्रित किया गया|जब दुर्योधन इस सुन्दर प्रासाद को देख रहा था तब मन ही मन अत्यंत क्षोभ में डूब रहा था | इस राजमहल में कई जगह मृगमरीचिका के समान फर्श था जहाँ पानी दिखता था वहां ठोस तल था और जहाँ ठोस तल दिखता था वहां जल ताल था |अतः दुर्योधन ठोस तल के फेर में जल ताल में डूब गया ये देख द्रौपदी हस पड़ी और परिहास करते हुए बोली -"अंधे पिता का अँधा पुत्र "| ये सुनकर दुर्योधन अत्यंत क्रोधित हुआ और उसका क्षोभ अपमान में परिवर्तित हो गया |दुर्योधन के मन में पांडवो को नीचा दिखाने एवं द्रौपदी से प्रतिशोध लेने की इच्छा का पुनर्जागरण हो गया|

हस्तिनापुर पहुचे युवराज दुर्योधन को आत्मपीड़ित देख धृतराष्ट्र ने जब इसका कारण जाना तब अपने पुत्र की वेदना को एक राजा सहन नहीं कर पाया| इसी पुत्रमोह ने उस अधर्म की पष्ठभूमि तैयार कर दी जो न केवल भारतवर्ष के इतिहास को कलंकित करता रहेगा अपितु स्त्री जाति के मान सम्मान पर भी आघात करता रहेगा|शकुनी ,जो गंधार नरेश बन चुका था,युद्ध विद्या में तो प्रवीण नहीं था पर उस समय के क्षत्रियो के व्यसन द्यूत अर्थात जुए में अत्यंत कुशल था |वह द्यूत के पासो पर अधिकार प्राप्त कर चुका था अतः उसकी इच्छा अनुसार ही पासों पर अंक आते थे|शकुनी ने दुर्योधन को परामर्श दिया कि सैन्य बल में तुम पांडवो से नहीं जीत सकते पर द्यूत में तुम उनका सर्वस्य हरण कर सकते हो और कोई भी क्षत्रिय द्यूत निमंत्रण को ना नहीं कहता!!!
तब इसी परामर्श को लेकर दुर्योधन राजा धृतराष्ट्र के पास गया और पिता ने अग्रज कुरु के कर्तव्य को त्यागते हुए युधिष्ठिर को मनोरंजन सभा के बहाने हस्तिनापुर बुलवा लिया |जब युधिष्ठिर मनोरंजन सभा में पंहुचा तब बड़े पिताश्री के नाते धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीडा में सम्मलित होने का आदेश दिया|अब धर्मराज युधिष्ठिर को धर्म के आधीन ज्येष्ठ पिताश्री की आज्ञा माननी ही पड़ी|
अब द्यूत का खेल शुरू हो चुका था साथ ही शकुनी के पासे अश्व के समान दौड़ रहे थे|युधिष्ठिर पहले धन ,दासी,राज्य हार चुका था|द्यूत -क्रीडा की सभा में अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे|जिनमे पितामह भीष्म ,गुरु द्रोणाचार्य ,महात्मा विधुर,महारथी कर्ण प्रमुख थे|अब युधिष्ठिर के पास जब कुछ शेष नहीं बचा तब महात्मा विधुर ने राजा धृतराष्ट्र से द्यूत समाप्त करवाने का आदेश देने की प्रार्थना की और पितामह भीष्म ने भी कुछ धीमी वाणी में द्यूत बंद करवाने के लिए कहा परन्तु अँधा राजा तो अपने पक्ष की विजय से उत्साहित होकर इन सभी बातों को दरकिनार कर रहा था|अब द्यूत में नीचता की पराकाष्ठा होने को थी जब युधिष्ठिर ने पहले अपने भाइयों को दाव पर लगाया और उन्हें हार गया तत्पश्चात धर्मराज ने स्वयं को दाव पर लगाया ,और स्वयं को भी दुर्योधन के हाथो हार बैठा|स्वयं को हारने के बाद उसने कहा कि अब मेरे पास कुछ शेष नहीं है तब शकुनी ने उसे द्रौपदी को उसकी सम्पत्ति बताते हुए दाव पर लगाने को कहा और द्रौपदी को धर्मराज हार गया|

द्रौपदी को जीतने के बाद दुर्योधन की आँखों में चमक और बढ गयी क्योकि नियमानुसार अब पांचो पांडव और द्रौपदी उसके दास-दासी थे|दुर्योधन के समीप बैठे कर्ण और शकुनी भी द्रौपदी को दुर्योधन की दासी देखकर अत्यंत प्रफुल्लित हो रहे थे|अब दुर्योधन ने द्रौपदी को भरी सभा में बुलाने का आदेश दिया |आदेश पाकर दुशासन द्रौपदी को लेने कक्ष में गया तब द्रौपदी ने कहा कि-"पहले धर्मराज से पूछ कर आओ कि उन्हें मुझे दाव पर लगाने का क्या अधिकार था,क्या एक पत्नी पति की सम्पत्ति मात्र है??? क्या समाज में स्त्री एक वस्तु है जिसे जब चाहा दाव पर लगा दिया??? और क्या एक मनुष्य को,जो स्वयं को हार चुका है,एक स्वतंत्र व्यक्ति को दाव पर लगाने का अधिकार है???"
दुशासन फिर लौट आया पर अबकी बार दुर्योधन ने उसे केशों से पकड़ कर घसीटते हुए सभा में लाने का आदेश दिया|आदेश सुनकर दास पांडव उत्तेजित हुए पर महावीर भीम को भी दास युधिष्ठिर ने संयम रखने और दास की मर्यादा भंग न करने को कहा |दुशासन एक वस्त्रा द्रौपदी को केशों से पकड़ कर घसीटता हुआ कुरु सभा में ले आया|कुरु सभा में वही प्रश्न द्रौपदी ने दोहराहे पर किसी गणमान्य ने उसका उत्तर नहीं दिया|अब दुर्योधन और सभी मित्रो की बुद्धि पर अधर्म सवार हो गया था अतः: दुर्योधन ने द्रौपदी को अपनी जंघा पर बैठने का निमंत्रण दिया , साथ ही कर्ण बोला-जो स्त्री पांच पुरुषो के साथ रहती है वो 'वेश्या' होती है|
इधर पांचो पांडव अपना आपा खोते जा रहे थे जिसमे भीम विशेषकर कुंठित और कुद्ध था|वह युधिष्ठिर के धर्माचरण से कुंठित एवं कर्ण व दुर्योधन से कुद्ध था|इसी बीच कर्ण ने दुर्योधन को कहा-मित्र द्रौपदी अब तुम्हारी दासी है और दासी का कोई सम्मान नहीं होता तब यह नारी वस्त्रो में क्यूँ खड़ी है|इतना सुनकर आततायी दुर्योधन ने दुशासन को द्रौपदी का वस्त्रहरण करने का आदेश दिया|सारी सभा इस आदेश को सुनकर स्तब्ध रह गयी और विधुर ने राजा धृतराष्ट्र से इस आदेश को वापस लेने की प्रार्थना की|पर' द्रौपदी को दुर्योधन ने जीता है और इस पर उसका अधिकार है अतः मेरा इसमें हस्तक्षेप उचित नहीं है' ऐसा कहकर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन का पक्ष लिया साथ ही द्रोणाचार्य और भीष्म भी सभा में कायरो की तरह गर्दन झुकाए बैठे रहे |विधुर को जब इन कायरो से आशा की कोई किरण नज़र नहीं आई तब उसे शस्त्र विद्या ग्रहण नहीं करने का क्षोभ हुआ और धर्म का एकमात्र हिमायती भी सभा छोड़ कर चला गया|

आखोँ में लोलुपता लिए दुशासन द्रौपदी की तरफ बढ़ा| इसी बीच सभा में हो रहे अधार्मिक कार्य की भनक माता गांधारी को लग चुकी थी और उन्होने कौरवो का विनाश समीप जानकर सभा की तरफ प्रस्थान किया |अब अपने पतियो को दासत्व एवं तथाकथित धर्म के मकडजाल में फसे देख पांचाली ने वासुदेव कृष्ण का स्मरण किया|दुशासन ने द्रौपदी का चीर हरण करना शुरू किया तब द्रौपदी चीखते हुए बोली-मेरे कायर पतियो और सभा में बैठे सभी कायर कुल वृद्धो को धिक्कार है कि वो सब मुझ अबला का सम्मान नहीं बचा पा रहे है|एक महात्मा विधुर और राजकुमार विकर्ण ही पूरी सभा में नपुंसक नहीं है|पर मेरा सखा वासुदेव कृष्ण जो सभी अन्यायो और अधार्मिक कृत्यो का प्रबल विरोधी है वो इन सभी दुष्टो को दंड देगा |वासुदेव कृष्ण का नाम सुनकर दुर्योधन और कर्ण के मुख पीले पड़ गए और शकुनी के पासे उलट गए ,यकायक दुशासन का चीर खींचता हुआ हाथ रुक गया|वो वासुदेव कृष्ण अब ग्वाले से देवत्व की ओर बढ़ रहा था|अब दुशासन ,दुर्योधन ,कर्ण ,शकुनी को वासुदेव कृष्ण का सुदर्शन चक्र याद आ गया साथ ही याद आ गया शिशुपाल वध| डरे हुए दुशासन ने चीर हरण बंद कर दिया ,और पूरी सभा में कृष्ण की माया का समावेश हो गया|
गांधारी सभा में पहुची तब डरी व सहमी द्रौपदी ,गांधारी से लिपट कर फूट फूट कर रोई और सारा वृतांत कह सुनाया|गांधारी ने धृतराष्ट्र से कहा कि -आपने आज कौरवो के विनाश का अध्याय लिखा है और इस पुत्र दुर्योधन पर मुझे लाज आती है कि इसने मेरा दूध पीकर भी एक स्त्री को अपमानित किया |आज ये कुरु वंश पापी हो गया है अगर अभी भी कुछ लज्जा बाकि है तो तुरंत पांडवो को दासत्व से मुक्त किया जाये और इन्हें इनका राज्य लौटाया जाये|
ऐसा सुनकर दुर्योधन क्रोधित हुआ और उसने पांडवो को दासत्व से मुक्त करने के लिए मना कर दिया | भीम भी कुद्ध होकर बोला-माता अब तो कौरवो का विनाश होकर रहेगा ,मैं भीम ,प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक इस दुष्ट दुशासन के अपवित्र भुजाओ को काट न दूँ और इस दुर्योधन की जंघा को तोड़ न दूँ तब तक मुझे मोक्ष न मिले |द्रौपदी भी बोली -मैं जब तक दुशासन के रक्त से अपने केशो का अभिषेक न कर लूँ तब तक अपने बाल खुले रखूंगी|

अंततः दुर्योधन ने धृतराष्ट्र व गांधारी के समझाने पर पांडवों को दासत्व से तो मुक्त कर दिया पर राज्य प्राप्ति के लिए बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास की शर्त रख दी |अगर अज्ञातवास में दुर्योधन पांडवों को दूंढले तब पुनः बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास पांडवो को भुगतना पड़ेगा |
धर्म में बंधे व जुए में हारे युधिष्ठिर को काम्यक वन में वनवास के लिए जाना पड़ा |एक बार जब पांडव वन में भोजन के लिए चले गए तब द्रौपदी को पीछे से अकेले पाकर सिंधुनरेश जयद्रथ द्रौपदी के पास आया और उसके रूप को देख कामासक्त हो गया तथा द्रौपदी से प्रणय निवेदन कर बैठा |द्रौपदी ने गांधारी पुत्री दुशाला का पति जानते हुए जयद्रथ के इस दुह्साहस को क्षमा कर दिया परतु कामासक्त जयद्रथ ने द्रौपदी का अपहरण कर लिया |जब पांडव वन से लौटे तो अन्य व्यक्तियों ने पूरा वृतांत सुनाया तब युधिष्ठिर की आज्ञानुसार पांडवो ने जयद्रथ को युद्ध में हरा कर बंदी बना कर युधिष्ठिर के समक्ष पेश किया|तब जयद्रथ को मारने का सुझाव आया तब दुशाला के विधवा होने के भय से पांडवो ने जयद्रथ के केश काटकर सर पर पांच बालो के गुछे छोड़ दिए ताकि जयद्रथ इस अपमान को याद रखे और भविष्य में ऐसी गलती न करे |

द्रौपदी का अपमान होना अभी यही नहीं रुका था अपितु जब पांडव विराट नगर में अज्ञातवास में थे तब द्रौपदी विराट नगर की महारानी की केश सवारने वाली दासी की भूमिका में थी और महारानी के भाई कीचक ,जो कि अत्यंत बलशाली और महावीर था ,की द्रौपदी पर नज़र पड़ गयी और उसने अपनी बहन से दासी द्रौपदी को उसके कक्ष में रात्रि काल में भेजने को कहा | इतना जानकर द्रौपदी ने कीचक से कहा कि-मैं पतिव्रता नारी हूँ,मेरे पांच यक्ष पुरुष पति है अतः आप मुझे अपवित्र करने का साहस न करे अन्यथा मेरे पति आपका वध कर देंगे|परन्तु अपनी शक्ति में उन्मुक्त कीचक को द्रौपदी की भी बात समझ में नहीं आई तब द्रौपदी ने रसोइये भीम और नृत्य सिखाने वाले अर्जुन को यह बात बताई और योजनानुसार रात्रि काल में कीचक को बुलवाया तब भीम ने कीचक का वध कर दिया जो केवल संसार में भीम ,दाऊ,दुर्योधन के अलावा कोई नहीं कर सकता था|

अंतत महाभारत का युद्ध हुआ |द्रौपदी ने ही समय-समय पर पांडवो को प्रतिशोध के लिए ललकारा और महाभारत के युद्ध में महाबली भीम ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की |पर द्रौपदी उसके अपमान से पहले ही हस्तिनापुर से युद्ध चाहती थी क्योकि गुरु द्रोण से अपने पिता के अपमान का बदला चाहती थी|द्रौपदी के पांचो पांडवो से एक-एक संतान हुयी |प्रतिविन्ध्य युधिष्ठिर से,स्रुत्सोम भीम से,श्रुतकीर्ति अर्जुन से,सतानिका नकुल से,स्रुत्कर्म सहदेव से उत्पन्न हुए|परन्तु सभी पुत्र महाभारत के युद्ध के उपरांत द्रोण पुत्र अश्वत्थामा के हाथो मारे गए|शायद कुछ अहंकार,कुछ प्रतिहिंसा की भावना ने द्रौपदी को धर्म के पक्ष में रहते हुए अधर्म में आसक्त कर दिया था अतः इस कर्मयुद्ध में द्रौपदी को भी उसके कर्मो का दंड मिला और उसके पुत्रो की हत्या हो गयी|
चाहे कोई भी प्राणी चाहे संसार में किसी भी पक्ष में रहे पर उसके कर्मो का दंड प्रकृति उसे दे ही देती है|इस संसार में न तो वासुदेव कृष्ण अपने कर्मो के फल से बच सके है न ही उनकी प्रिय सखी द्रौपदी|
धन्यवाद|