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इस ब्लॉग का मुख्य मकसद नयी पीढ़ी में नई और विवेकपूर्ण सोच का संचार करना है|आज के हालात भी किसी महाभारत से कम नहीं है अतः हमें फिर से अन्याय के खिलाफ खड़ा करने की प्रेरणा केवल महाभारत दे सकता है|महाभारत और कुछ सन्दर्भ ब्लॉग महाभारत के कुछ वीरो ,महारथियों,पात्रो और चरित्रों को फिर ब्लोगिंग में जीवित करने का ज़रिया है|यह ब्लॉग महाभारत के पात्रों के माध्यम से आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है|

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Sunday, September 30, 2012

महाभारत और धर्मराज युधिष्ठिर : महाभारत ब्लॉग १७

महाभारत की पौराणिक कथा में सबसे पवित्र किरदार युधिष्ठिर को माने तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी | वैसे तो सब मधुसूदन की माया का खेल है , पर इस माया रुपी कथा सरिता में भी युधिष्ठिर ही मोती बनकर निकला है | जिस प्रकार रामायण कथा में श्री राम सदैव मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये उसी प्रकार युधिष्ठिर भी महाभारत कथा में मर्यादा पुरुषोत्तम ही रहे बस समय के अनुसार घटनाक्रम थोडा बदल गया | क्योकिं समय के साथ पाप, पुण्य,मर्यादा पुरुषोत्तम आदि की परिभाषायें भी बदल जाती है | साथ ही युधिष्ठिर को धर्मराज भी कहा जाता है क्योकिं उस युग में भी उसने धर्म को सदैव निभाया और सदैव ही नैतिक कार्यो का समर्थन भी किया | वैसे धर्मराज की इतनी बड़ी संज्ञा स्वयं श्री कृष्ण को भी नहीं मिली थी क्योकिं उस कान्हा ने सदैव अधर्म को पराजित किया चाहे नैतिकता के बल पर हो या अनैतिकता के बल पर | अतः कुछ अनैतिक अनुप्रयोगों के कारण इतिहास केशव को धर्मराज नहीं कहता | वैसे भी संज्ञायें मानवों के लिए होती है अति मानवों के लिए नहीं | पर जो भी हो ,उस ग्वाले का धर्मस्थापना का हठ ही युधिष्ठिर के महाभारत युद्ध लड़ने और जीतने का कारण बना | अतः हम कह सकते है कि युधिष्ठिर जहाँ प्रकृति के धर्म रूप थे वहीँ श्री कृष्ण अधर्म संहारक रूप | परन्तु दोनों ही एक दूसरे के पूरक थे क्योंकिं दोनों की प्रतिबद्धता केवल और केवल धर्म के प्रति थी | जहाँ एक ओर युधिष्ठिर धर्म के सौम्य रूप थे वहीँ दूसरी ओर श्री कृष्ण धर्म के रूद्र रूप | 

धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म माता कुंती के गर्भ से , 'धर्म' के आशीर्वाद स्वरुप 'निरोध' विधि द्वारा राजा पाण्डु के क्षेत्रज पुत्र के रूप में हुआ | वह युवराज 'सुयोधन' से वय में बड़े थे अतः सिंहासन के स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे | परन्तु राजा पाण्डु की मृत्यु ने युधिष्ठिर को न केवल धृतराष्ट्र का आश्रित बना दिया अपितु उसे अपने प्राणों का भय भी सताने लगा क्योकिं दुर्योधन किसी भी कीमत पर इस पाँच भाइयों का विनाश चाहता था | फिर भी इस विपरीत परिस्थितियों के बावजूद युधिष्ठिर ने 'धर्म' और नैतिकता का दमन नहीं छोड़ा | माना युधिष्ठिर को 'धर्मराज' होने की भविष्य में भारी कीमत चुकानी पड़ी परन्तु युधिष्ठिर के 'धर्मराज' होने के कारण ही यह महायुद्ध , धर्म और अधर्म के बीच युद्ध कहलाया जहाँ एक खेमा धर्म के पक्ष में था और दूसरा अधर्म के पक्ष में | साथ ही आज मैं युधिष्ठिर को सम्मान के साथ आपके सामने पेश कर रहा हूँ क्योकिं 'धर्मराज' होना ही इसके लिए उत्तरदायी है |

युधिष्ठिर को इन्द्रप्रस्थ का राज्य मिला और उन्होंने राजसूय यज्ञ संपन्न किया | राजसत्ता होते हुए भी युधिष्ठिर में अहंकार नहीं आया और उसने जन की भलाई में राज्य को निहित किया | उसने राज्य से सभी अधार्मिक और अनैतिक कार्यो को बंद करवा दिया और उस समय की राजप्रिय क्रीडा 'द्यूत' अर्थात जूए को भी उसने बंद करवा दिया | परिस्थितियां बदली और दुर्योधन के मंतव्य को पूरा करने हेतु राजा धृतराष्ट्र ने सम्राट युधिष्ठिर को 'द्यूतक्रीड़ा' में आने का निमंत्रण भेजा | युधिष्ठिर को भलीभांति ज्ञात था कि जूए का यह खेल अमंगलकारी ही होगा परन्तु पिता समान धृतराष्ट्र की आज्ञा की अवज्ञा करने का साहस युधिष्ठिर में नहीं था | साथ ही 'द्यूतक्रीड़ा' उस समय के क्षत्रिय समाज में युद्ध - निमंत्रण के समान था जिसे पूरा करना हर क्षत्रिय का धर्म माना जाता था अतः वह हस्तिनापुर की राजसभा में 'द्यूतक्रीड़ा' करने गया |

शकुनी जैसे खिलाडी के सामने युधिष्ठिर अपने भाइयों और पत्नी समेत सर्वस्य हार गया | परन्तु जब द्रोपदी का वस्त्रहरण हुआ तब शायद युधिष्ठिर ने धर्म की गलत परिभाषा को अंगीकार किया उसे पिता समान धृतराष्ट्र की आज्ञा और द्यूत जैसे नीच खेल की मर्यादा का तो ख्याल था परन्तु उसे 'नारी-मर्यादा' का ध्यान नहीं आया | शायदअब तक नियमों के बन्धनों से बंधा 'युधिष्ठिर का धर्म' , मधुसूदन के 'व्यापक धर्म' को बस छू ही पाया था ; उसे पूरी तरह अंगीकार नहीं कर पाया था |

परन्तु बारह वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास ने युधिष्ठिर को 'व्यापक धर्म' समझ आ गया था और यह परिघटना युधिष्ठिर के लगातार चिंतन और ऋषियों के सानिध्य के फलस्वरूप संभव हुई | ऐसे कई कहानियाँ प्रकाश में आई है जब धर्म के सार्वभौमिक चिंतन के द्वारा युधिष्ठिर ने अपनी और अपने भाइयों की जान बचाई थी |

एक ऐसी ही घटना यक्ष से जुडी हुई है | यहाँ 'यक्ष' एक प्रकार की मनुष्य प्रजाति है जोकि 'दक्षों' और 'रक्षों' से भिन्न थी और संगीत कला व् तंत्र-कला में निपूर्ण थी | इस घटना में एक बार पीने का पानी ख़त्म हो जाने के कारण भीम एक तालाब से पानी भरने जाता है किन्तु उस तालाब पर एक यक्ष अधिकार जमाता है | फलस्वरूप भीम से उसका युद्ध होता है और वह भीम को मूर्छित कर देता है | भीम की तलाश में क्रमशः अर्जुन , नकुल , सहदेव जाते है और उनका भी यही हश्र होता है | अब जब स्वयं युधिष्ठिर जाता है तब यक्ष कहता है कि अगर तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दोगे तो मैं तुम्हारे एक भाई को जाने दूंगा | युधिष्ठिर यह शर्त मानकर उसके सभी प्रश्नों का सही उत्तर देता है | जब यक्ष पूछता है कि कौनसे भाई को अपने साथ ले जाना चाहते हो तब युधिष्ठिर नकुल का नाम लेता है | यक्ष इसका कारण जानना चाहता है तो वह कहता है कि मेरी माता कुंती का वंश तो मैं चला लूँगा पर माता माद्री का वंश कौन चलाएगा?? ऐसा सुनकर यक्ष प्रसन्न होता है और उसके सभी भाइयों को मुक्त कर देता है |

यह कथा एक प्रतीकात्मक कथा है जो युधिष्ठिर कि धर्मशीलता को प्रकट करती है | ऐसी कई कथायें और भी प्रचलित है जो युधिष्ठिर को 'धर्मराज' घोषित करती है |

महाभारत के युद्ध में भी अश्वत्थामा वध की भ्रामक सूचना के अतिरिक्त युधिष्ठिर सदैव सत्यवादी ही रहे और महाभारत युद्ध के पश्चात् भी उनके जीते-जी ही स्वर्ग में जाने की कथा का उल्लेख मिलता है |अतः हम कह सकते है कि महाभारत ग्रन्थ में युधिष्ठिर ही 'संत-स्वभाव' का योद्धा रहे जो सदैव मानवता के पक्ष में युद्ध से परहेज़ करते रहे | यहाँ तक उन्होंने अहिंसा और मानवता की व्यापक हानि को मद्देनज़र् रखते हुये अपने हक के लिये होने वाले युद्ध को भी दरकिनार करना चाहा पर केशव की इच्छा के आगे मानव की इच्छा को दबना है | क्योकिं वासुदेव श्री कृष्ण ने तो उन सभी युद्धोन्मुख वीरों को पहले ही मार दिया था जब वे धर्म-च्युत हुए थे , युद्ध बस अब तो उन्हें रक्तिम करने और अग्नि देव के सुपुर्द करने का बहाना था |

वैसे युधिष्ठिर 'धर्मात्मा' अवश्य थे किन्तु 'कायर' नहीं | क्योकिं उन्हें भी 'महारथियों' में से एक माना जाता था जो किसी भी 'रथी' और 'अतिरथी' को परास्त कर सकता हो | वे एक सच्चे मानवतावादी थे जो युद्ध को समाज की 'कोढ़' समझते थे | आज के इस वातावरण में फिर हमें एक 'युधिष्ठिर-धर्म' की आवश्कता है जो विपरीत और सघन परिस्थितियों में भी सत्य और मानवता का दामन थामे रहे | साथ ही आवश्कता है केशव के 'व्यापक धर्म' की जो 'युधिष्ठिर-धर्म' को समय-समय पर संभाल सके |
धन्यवाद |

Saturday, June 23, 2012

महाभारत और रानी माद्री : महाभारत ब्लॉग १६

महाभारत और कुछ सन्दर्भ में आज मैं उस पात्र का बखान करने जा रहा हूँ जिसका इस महापर्व में किरदार तो बहुत छोटा है , परन्तु उससे सम्बंधित घटनाये पूरे कालखंड को प्रभावित करती सी प्रतीत होती है |
माद्री , मद्र देश की राजकुमारी , महाराज पांडु की दूसरी पत्नी थी | जब पांडु हस्तिनापुर से अघोषित वनवास काट रहे थे तब उनका सामना मद्र देश के राजा शाल्य से युद्ध क्षेत्र में हुआ जिसमे उन्होंने शाल्य की सेना को पराजित किया | पांडु की इस वीरता से प्रभावित राजा शाल्य ने अपनी एकमात्र बहिन माद्री का हाथ पांडु के हाथ में दे दिया | परम सुंदरी माद्री को पांडु ने स्वीकार किया और वो पांडु की दूसरी पत्नी के रूप में पांडु और कुंती के साथ रहने लगी |
एक दिन पांडु वन में आखेट कर रहा था तब उसका बाण प्रणय क्रिया में रत एक ऋषि जोड़े को जा लगा | इससे अपने प्राण संकट में पा कर ऋषि जोड़े ने पांडु को श्राप दिया कि जब भी पांडु स्वयं प्रणय क्रीडा में रत होगा तब मारा जायेगा | एक और कारण था कि पांडु का स्नायु तंत्र बेहद कमज़ोर था अतः वह थोड़ी भी उत्तेजना बर्दाश्त नहीं कर पाता था | उसका मन तो काम के प्रति आकर्षित था पर काम के मध्य होने वाली उत्तेजना के प्रति वह कमज़ोर स्नायु की वज़ह से भयभीत था |
पर जब पांडु के पुत्र प्राप्ति का सवाल आया तब ऋषि अगस्त्य ने कुंती को ऋषि दुर्वासा द्वारा दिए वरदान और मंत्र के बारे में बताया जिसके द्वारा वह किसी भी देवता का आव्हान करके , उस देवता के गुणों युक्त पुत्र को 'निरोध' द्वारा प्राप्त कर सकती है अतः उसने 'धर्म' से युधिष्ठिर , 'वायु' से भीम और 'इन्द्र' से अर्जुन को प्राप्त किया और ये तीनो ही पांडु के क्षेत्रज पुत्र कहलाये | पर नियमानुसार कुंती 'निरोध' से केवल तीन पुत्र ही जन्म दे सकती थी अतः उसने ये मंत्र माद्री को दे दिया | माद्री ने 'अश्विनी कुमारों' के आव्हान से नकुल और सहदेव को जन्म दिया |
एक दिन जब माद्री सरोवर में नहा रही थी तब उसके रूप-सौंदर्य और लावण्या को देख पांडु में काम भाव जाग गया और उनसे अपनी स्नायु की कमजोरी और श्राप को भुला दिया और माद्री में रत होने लगा | माद्री भी पांडु के बारे में जानते हुए भी अपने पति में रत होने लगी , परन्तु जैसा की नियति का खेल था कि पांडु उत्तेजना नहीं सह पाया और उसका रक्त उसके सिर पर चढ़ गया और उसके मुख से बाहर आने लगा | तुरंत ही पांडु की मृत्यु हो गयी | पांडु को मरा पाकर माद्री चिल्लाने लगी और स्वयं को उसकी मौत का दोषी मानने लगी |
जब पांडु के अंतिम संस्कार का समय आया तब उसने माता कुंती को अपने पुत्रो को संभला दिया और स्वयं अपने आप को पांडु की मृत्यु का दोषी मानते हुए प्राशचित करने के लिए अपने पति के साथ जलती चिता में सती हो गयी |
सती होने का ये उदाहरण महाभारत के महापर्व में संभवतः पहला और अंतिम ही है | पर इस उदाहरण ने न जाने कितनी स्त्रियों को सती होने पर विवश कर दिया क्योकि हमारे समाज का अभिजात्य वर्ग लगभग १९ वी सदी तक इस उदाहरण को देता रहा और स्त्रियों को उनकी मर्ज़ी के खिलाफ़ जबरन पति की चिता में धकेलता रहा | ये उदाहरण न केवल भारतीय समाज में व्यापक बुराई लेकर आया अपितु हमारी आधी आबादी को सदैव तिरस्कृत और अपने पुरुष जीवन साथी से हीन बताता रहा |
पर असल में यहाँ माद्री के सती होने की गलत व्याख्या धर्म के ठेकेदारों द्वारा की गयी | माद्री , जो की पति के प्रेमवश और प्रति की मृत्यु के प्राशचित वश अग्नि में कूदी थी , को सतियो का आदर्श मानकर दूसरी स्त्रियों को सती होने के लिए बाध्य किया गया | वो ठेकेदार सती माद्री मर्म नहीं समझ पाए और उसकी परिणति अधर्म में कर दी |
बाद में माता कुंती ने सदैव नकुल और सहदेव को अपना पुत्र मानकर पला तथा स्त्री कर्त्तव्य की शानदार मिशाल पेश की |
धन्यवाद 

 


Tuesday, March 27, 2012

महाभारत और युवराज दुर्योधन : महाभारत ब्लॉग १५

'दुर्योधन' या 'सुयोधन' , जिसके इर्द-गिर्द ही अधर्म ने और उसके नेत्रहीन पिता ने अपनी विजय का ताना बाना बुना था , इस जयसंहिता का मुख्य पात्र था | और दुर्योधन का अहंकार भाव ही इस युद्ध की कटु परिणति का मुख्य कारण था | वो दुर्योधन अंत तक भी वासुदेव कृष्ण की धर्म स्थापना में आसक्ति को नहीं समझ पाया और अपने भाई-बान्धवों का समूल नाश करवा बैठा | पर क्या दुर्योधन का इस परिदृश में उपस्थित होना और उसकी अनीति ही महाभारत के विनाशकारी समर का कारण था ? , शायद नहीं | दुर्योधन को ही सिर्फ दोष देना ऐसा ही होगा जैसा दीये की कालिख के लिए केवल लौ को ही दोष देना और कालिख में तेल की भूमिका को नगण्य मानना |पर जो भी हो , दुर्योधन के नियमपूर्ण अधर्म और वासुदेव कृष्ण के नियमहीन धर्म के परस्पर युद्ध में धर्म का ही पलड़ा भारी रहा और इसी विजय ने इस जयसंहिता को 'धर्मग्रन्थ' का दर्जा दे दिया |
पर दुर्योधन ने संसार को कुछ सबक दिए जो आने वाले समय में सभी समाजों को चरित्र ही बन गया , जैसे भीम की हत्या की कोशिश और छल-बल द्वारा पांड्वो को राजसिंहासन से दूर रखना | आज की राजनीतिक परिस्थितियां भी इस "दुर्योधन विधा" पर आश्रित है | कोई भी दल सत्ता के लिए कोई भी ''दुर्योधन प्रपंच" लगाने से नहीं चूकता है | 
दुर्योधन का जन्म माता गांधारी की कोख से हस्तिनापुर के महल में हुआ पर जन्म से ही वह बालक विवादों और महत्वाकांशाओ की बलि चढ़ गया | अपने पति के नेत्रहीनत्व से रुष्ट गांधारी ने अपने पुत्र को युवराज बनवाने के लिए , माता कुंती से पहले बालक को जन्म देने की कोशिश में अपने ही गर्भ पर कई प्रहार किये परन्तु युधिष्ठिर का जन्म उस बालक से पहले हो गया | इस बात से निराश गांधारी ने बालक को जन्म तो दिया पर गर्भ में ही चोट लग जाने से बालक कमजोर पैदा हुआ | उसे बचाने के लिए हस्तिनापुर के कई वैध्य लगे और उसे बचाकर उसका नाम 'सुयोधन ' रखा गया | सुयोधन का अर्थ है भीषण आघातों से युद्ध करने वाला | पर बालक सुयोधन पर पिता की राजगद्दी की महत्वकांशा और माता व् मामा के हस्तिनापुर के विनाश के मंसूबों ने विपरीत प्रभाव डाला | जब पांडव पुत्र माता कुंती के साथ वन से हस्तिनापुर आये तब सुयोधन को इन पांच पांड्वो को देखकर क्रोध और प्रतिस्पर्धा की भावना का अनुभव हुआ और वह मन ही मन उन ऋषि वेश धारी पांडव पुत्रो से घृणा करने लगा | पर जब उसे युधिष्ठिर के भावी राजा बनने के बारे में पता चला तब वह कुंठा से भर उठा क्योकि जिस राजप्रासाद वो बचपन से स्वयं की सम्पत्ति समझ कर बैठा था उसे ये पांडव छीन सकते थे | बस यही से सुयोधन से 'दुर्योधन' का जन्म हुआ और उसने पांडव पुत्रो को अपने मामा शकुनी की सहायता से समाप्त करने की कोशिशें शुरू कर दी |
सर्वप्रथम उसने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी भीम को समाप्त करने के लिए उसे प्रमाणकोटी में विष दे दिया और उसे गंगा में फेक दिया पर गंगा में भीम को विषैले साँपों में डस लिया जिससे पूर्ववर्ती विष और सर्प विष दोनों का प्रभाव नष्ट हो गया और भीम बच गया | तत्पश्चात दुर्योधन ने लाक्षाग्रह में पांडवो को जलाना चाहा पर वह सफल नहीं हो पाया |
वस्तुतः दुर्योधन पांडवो को राजसिंहासन का असली उत्तराधिकारी नहीं समझता था क्योकि धृतराष्ट्र , पांडू से बड़ा था पर नेत्रहीन होने के कारण उसे राजा नहीं बनाया गया | परन्तु अब वह कुरुकुल के ज्येष्ठ पुत्र  धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र था अतः वह स्वयं को ही युवराज समझता था | और अब चूकी उसके पिता तख़्त पर आसीन थे तब वह युवराज बनने के सपने आँखों में संजोये बैठा था | साथ ही वह पांडवो को पांडू के असली पुत्र नहीं मानता था क्योकि पांडव 'निरोग' से उत्पन्न हुए थे और पांडू उनका जैविक पिता नहीं था |लेकिन जैसा की नियम था कि राजा का पुत्र ही राजा बन सकता है अतः युधिष्ठिर ही तख़्त का असली वारिस था और साथ ही युधिष्ठिर ज्येष्ठ कुरु पुत्र था | 
दुर्योधन को कलियुग का अवतार माना जाता है क्योंकि उसने कलियुग में होने वाले सभी राजनीतिक हथकंडो को अपना रखा था | वह परम राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ व्यक्ति था | साथ ही उसमे नेतृत्व करने का गुण युधिष्ठिर से अधिक था | वह गदा युद्ध में संसार का महानतम और अद्वितीय योद्धा था ; यहाँ तक स्वयं यदुवंशी बलराम , जोकि भीम और दुर्योधन दोनों के गुरु थे , भी दुर्योधन को सर्वश्रेष्ठ गदाधारी मानते थे | उसमे बेशक बल तो भीम से कम था परन्तु चपलता आकाशीय बिजली के सामान थी | उसकी इन्ही क्षमताओं के फलस्वरूप अनेक राजा महाभारत युद्ध में उसके सहगामी बने |
परन्तु दुर्योधन , युधिष्ठिर की तुलना में नैतिक रूप से पतित था और उसके राजा रहते पृथ्वी पर 'धर्मराज्य' की स्थापना असंभव थी | और धर्म की स्थापना ही योगेश्वर कृष्ण का परम लक्ष्य था अतः पांडवो का साम्राज्य ही उस मधुसूदन के लक्ष्य को पूर्ण कर सकता था |
जब युधिष्ठिर को युवराज बनाया गया तब दुर्योधन ने लाक्षागृह का षड़यंत्र रचा जिससे पांडवो को असुरक्षा की भावना के फलस्वरूप वन में छुपकर रहना पड़ा तब पांडवो की अनुपस्थिति में उसने स्वयं को युवराज घोषित करवा लिया | जब पांडव लौटे तब उसने युवराज पद पर अपना दावा जताते हुए पद से हटने से इनकार कर दिया | तब धृतराष्ट्र को पुत्र को राज्याधिकार देने के लिए कुरु राज्य को विभाजित करना पड़ा और युधिष्ठिर को इन्द्रप्रश्थ (आधुनिक दिल्ली नगर में ) का राज्य देना पड़ा | 
जब धर्मराज युधिष्ठिर ने परम वास्तुकार मायावी राक्षस से इन्द्रप्रश्थ महल का निर्माण करवाया तब उसने सभी राजाओं और युवराजों को महल देखने के लिए और 'राजसूय' यज्ञ में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया | जैसे ही इस महल को दुर्योधन ने देखा वैसे ही उसके मन में ईर्ष्या और द्वेष ने घर कर लिया | जब वह महल को देख रहा था तब उसे फर्श पर बने जलकुंड और धरातल का फर्क नहीं दिख पाया और वह धरातल के जाल में जल में गिर गया | इस दृश्य को देख द्रोपति हसने लगी और कहा , "अंधे का पुत्र अँधा " | यह बात दुर्योधन में घावों में नमक की तरह चुभ गयी और यहीं से द्रोपति के अपमान की भूमिका तैयार हो गयी |
जब दुर्योधन हस्तिनापुर पंहुचा तब उसने शकुनी की सहायता से द्यूत की योजना तैयार की जिसमे शकुनी के पासों पर एकाधिकार की सहायता से उसकी विजय हुई और पांडव द्रोपति समेत स्वयं को भी हार बैठे | उसने पांडवो पर बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास की शर्त थोप दी और कहा कि अगर पांडवो ने सफलतापूर्वक ये शर्त पूरी कर दी तो वो उनका राज्य लौटा देना अन्यथा अगर वो अज्ञातवास में ढूंढ लिए गए तो उन्हें दुबारा बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास भोगना होगा | अब उसने एकवस्त्रा पांचाली को बालों से राज्यसभा में घसीटकर लाने की आज्ञा दी | जब दुशासन द्वारा पांचाली को लाया गया तब उसने द्रोपति को दासी संबोधित करते हुए अपनी जंघा पर बैठने को कहा और 'दासी का कोई सम्मान नहीं होता ' ऐसा कहते हुए दुशासन को उसे निर्वस्त्र करने को कहा | ये वाकया दर्शाता है कि महाभारत काल में स्त्रियों कि स्थिति गिर चुकी थी और दासों और दासिओं से पशुवत व्यवहार किया जाता था |
तब भीम ने दुर्योधन कि जंघा युद्ध भूमि में तोड़ने और दुशासन का लहू पीने व् पांचाली के केशों पर लगाने कि प्रतिज्ञा की |
जब पांडव बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास पूरा करके आये तब दुर्योधन ने उन पर ढूंढ लिए जाने का आरोप लगाया और उन्हें 'सूई की नोक ' के बराबर भूमि देने से इनकार कर दिया | जब वासुदेव कृष्ण शांति प्रस्ताव लेकर कुरु सभा में गए तब उसे भी दुर्योधन ने ठुकरा दिया | 
अब युद्ध अवश्यम्भावी था और पर उसने युद्ध में भी अपनी छल नीति को नहीं छोड़ा और बालक अभिमन्यु की युद्ध के नियमों के विरुद्ध हत्या कर दी | बस यही से वासुदेव कृष्ण का भी युद्ध नियमों से मोह हट गया पर वैसे भी वो ग्वाला केशव नियमों को ताक में रखकर धर्म की निर्णायक विजय के लिए कृतसंकल्प होकर ही युद्ध में उतरा था | 
जब भीम और दुर्योधन का गदायुद्ध चल रहा था तब गांधारी के सतीबल और दुर्योधन के कड़े व्यायाम के फलस्वरूप , दुर्योधन लोहे के समान कठोर हो गया पर उसका जंघा इतना कठोर नहीं था | अतः इस भीषण महायुद्ध में भीम की पराजय होती दिख रही थी | चूकी दुर्योधन के सभी सम्बन्धी मारे जा चुके थे अतः वह राज्य लेने का इच्छुक नहीं था पर भीम से जीतना उसका परम लक्ष्य बन चुका था | इस स्थिति में भीम थकने और हारने लगा तब माधव कृष्ण भीम को दुर्योधन की जंघा तोड़ने के प्रतिज्ञा याद दिलवाई | जब भीम ने युद्ध के नियमों के विपरीत दुर्योधन की जंघा पर प्रहार किया और वो महावीर लड़ाका दुर्योधन भूमि पर गिर पड़ा | नियमों के मुताबिक गदा युद्ध में पेट से नीचे प्रहार वर्जित था | पर जिन मर्यादाओ को दुर्योधन ने जीवनभर तोडा उन्ही मर्यादाओं को तोड़कर दुर्योधन को भूमि पर मरणासन्न अवस्था में गिरा दिया गया और उसे अपने अनैतिक कार्यो को याद करने के लिए वहीँ छोड़ दिया गया |
इस तरह अन्यायी दुर्योधन को वासुदेव कृष्ण ने समाप्त करवा दिया | पर जो विरासत दुर्योधन छोड़ गया उसे स्वयं वासुदेव कृष्ण भी समाप्त नहीं कर पाए | वो विरासत आज लगभग प्रत्येक शासक , राजनीतिज्ञ बड़ी शान से अपना रहा है | आज फिर कई दुर्योधन है , अब फिर भीम की ज़रूरत है , अब फिर वासुदेव कृष्ण जैसों की ज़रूरत है |इन 'दुर्योधन वंशजों' का विनाश निश्चित है ,क्योंकि 'धर्म' चुप रह सकता है पर 'अधर्म' के आगे लाचार नहीं |
धन्यवाद |

Thursday, January 05, 2012

महाभारत और गुरुभक्त एकलव्य : महाभारत ब्लॉग १४

महाभारत और कुछ सन्दर्भ में मैं आज उस पात्र की चर्चा करने जा रहा हूँ जिसका महाभारत युद्ध में कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं था फिर भी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन का यह व्यक्ति विकल्प हो सकता था| वो व्यक्ति निषाध राजकुमार एकलव्य था जिसकी गुरु भक्ति और समर्पण भावना ने आज भी शिक्षा जगत को अचंभित किया हुआ है| कहते है कि 'गुरु के प्रत्यक्ष प्रशिक्षण के बिना ज्ञान प्राप्ति मुश्किल है ' परन्तु एकलव्य न केवल आत्म प्रशिक्षण की एक मिसाल है अपितु जो व्यक्ति स्वयं ही चीज़े सीखना और जानना चाहता है, उसके लिए एकलव्य प्रेरणास्त्रोत है| आज भी शिक्षा के क्षेत्र में एकलव्य बड़ा ही सम्मानित नाम है और कई विध्यार्तियों के लिए आदर्श है|
एकलव्य का जन्म भारतवर्ष के निषाध कबीले में निषाधराज हिरन्याधनुष के घर हुआ था | वैसे तो एकलव्य के जन्म के बारे में कई धारणाएं प्रचलित है | कहीं लिखा है कि एकलव्य वासुदेव के भाई देवाश्रवा और निषाध कन्या का कानन पुत्र था जिसको हिरन्याधनुष ने पाला-पोसा था जिस कारण वो कृष्ण का रक्त संबंधी हुआ और कोई कहता है कि वो श्रुतकीर्ति और हिरन्याधनुष की संतान था और श्रुतकीर्ति की पुत्री रुक्मणी जिसका विवाह वासुदेव कृष्ण से हुआ था | अतः वो वासुदेव कृष्ण का साला हुआ| परन्तु उस निषाध राजकुमार की प्रतिभा और समर्पण भावना किसी परिचय की मोहताज नहीं है|
माता के मना करने के उपरांत भी , छोटा बालक एकलव्य आँखों में धनुर्धारी बनने का ख्व़ाब लेकर गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचा | पर द्रोणाचार्य ने बालक एकलव्य को 'निषाध' होने के कारण शिक्षा और प्रशिक्षण देने से मना कर दिया क्योकि वो केवल क्षत्रिय राजकुमारों को ही शिक्षित करते थे | यह एक तरह का भेदभावपूर्ण रवैया हो सकता है परन्तु इसके पीछे उनका मानना था कि समाज की रक्षा के लिए क्षत्रिय आरक्षित है और अगर अन्य वर्गों को उनका दिया हुआ शस्त्रों का ज्ञान मिल गया तो वो क्षत्रियो के विरुद्ध इसका दुरूपयोग कर सकते है और अगर समाज में वर्ग संघर्ष पनपेगा तब समाज की रक्षा का मुख्य दायित्व अधूरा रह सकता था| पर जो भी हो आज की परिस्थितियों में यह नीति भेदभावपूर्ण ही होगी क्योकि अब समानता का युग है और राजसत्ता राजाओ से छिनकर प्रजा के हाथ में आ गयी है|
अब गुरु द्रोणाचार्य से हताश और निराश ये निषाध पुत्र स्वयं ही राजकुमारों का प्रशिक्षण देखकर और मन ही मन में गुरु द्रोणाचार्य को अपना गुरु मानकर वन में धनुर्विद्या का कड़ा अभ्यास करता और गुरु में श्रद्दा बनाये रखने के लिए उसने मिटटी से गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा बना ली| वह प्रतिदिन गुरु प्रतिमा को प्रणाम करके और राजकुमारों के प्रशिक्षण को देखकर प्रत्येक गुर का बड़ी एकाग्रता और समर्पण से सीख कर अभ्यास करता| 
एक दिन गुरु द्रोणाचार्य कुरु राजकुमारों को प्रशिक्षण देने वन में ले गए वहां सभी राजकुमार बड़े मनोयोग से अभ्यास कर रहे थे कि एक कुत्ते की भौकने की आवाज ने उनकी एकाग्रता को भंग कर दिया | तब गुरु द्रोणाचार्य ने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन से उस कुत्ते की आवाज बंद करने को कहा पर जैसे ही अर्जुन कुछ कर पाता ,कुत्ते की आवाज यकायक बंद हो गयी पर जब कुत्ते को द्रोणाचार्य ने देखा तो पाया कि उस कुत्ते का मुँह बाणों से इस प्रकार बंद कर दिया गया है कि कुत्ते की भौकने की आवाज भी बंद हो गयी और कुत्ते के मुँह पर बाणों की कोई नोक भी नहीं चुभी| इतने उत्कृष्टता से बाण संधान करने के लिए प्रतंचा पर लगा बल और दूरी का सही संतुलन आवश्यक था और ऐसी उत्कृष्टता गुरु द्रोणाचार्य के किसी भी शिष्य में नहीं थी|
उस कुत्ते पर लगे बाण की दिशा में खोज करने पर द्रोणाचार्य ने देखा कि एक किशोर अत्यंत एकाग्रता से बाण चला रहा है | जब द्रोणाचार्य उस किशोर के पास गए तब उस किशोर एकलव्य ने अपने गुरु को सामने पाकर चरणस्पर्श किया | तब गुरु द्रोणाचार्य ने कहा - 'हे पुत्र ! तुम धनुर्विद्या में अत्यंत उत्कृष्ट हो , तुम्हारा गुरु कौन है '| तब गुरु के संबोधन से गदगद एकलव्य ने विनीतभाव से कहा -'हे ब्रह्मणश्रेठ ! मेरे गुरु स्वयं आप ही है '| यह सुनकर आश्चर्यचकित द्रोणाचार्य ने पूछा -'कैसे'| तब एकलव्य उन्हें मिटटी की उस प्रतिमा के पास ले गया जिसे वह गुरु मानकर अभ्यास करता था | स्वयं की प्रतिमा देखकर द्रोणाचार्य ने कहा-'हे पुत्र ! मुझे याद नहीं है कि मैंने कब तुम्हे शिक्षा दी अतः स्पष्ट रूप से कहो '| तब एकलव्य ने कहा कि जब बाल्यकाल में आपने मुझे शिष्य के रूप में ग्रहण करने से मना कर दिया था तब मैंने आपको गुरु मानकर और राजकुमारों के प्रशिक्षण को देखकर स्वयं ही अभ्यास किया है | अतः आप ही मेरे गुरु है |
किशोर एकलव्य की बातें सुनकर गुरु द्रोणाचार्य को स्नेह और रोष दोनों की अनुभूति हुई | स्नेह इसलिए कि बालक ने अपनी लगन के बलबूते ही उनके प्रत्यक्ष शिष्यों से भी बढ़कर काम किया था और फिर भी वह विनम्र भाव से गुरु का आदर करता रहा था | और रोष इसलिए कि उसने चुपके -चुपके हस्तिनापुर की युद्धशाला में राजकुमारों का प्रशिक्षण देखा था जो कि राज्य के कानून के विरुद्ध था और इस कार्य के लिए उसे राज्यदंड भी मिल सकता था |
और तभी उन्हें अर्जुन को दिया हुआ आशीर्वाद याद आ गया कि 'अर्जुन ही आर्यावर्त का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनेगा ' परन्तु एकलव्य की प्रतिभा और मेहनत ने द्रोणाचार्य के आशीर्वाद की राह में रोड़े अटका दिए थे और एकलव्य के रहते अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं था|

अतः अपने आशीर्वाद को पूरा करने और चुपके से देखे गए प्रशिक्षण के फलस्वरूप मिलने वाले राजदंड से बचाने के लिए गुरु द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में एकलव्य से उसके दांये हाथ का अंगूठा मांग लिया | जिससे एकलव्य  बाण संधान करने में असमर्थ हो जाता और उसकी सीखी विद्या का कोई महत्व नहीं रहता | इस गुरुदक्षिणा को सुनकर सभी कुरु राजकुमार अचंभित रह गए पर गुरुभक्त एकलव्य ने एक ही झटके में अपना दायें हाथ का अंगूठा काट कर गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया | बस इसी पल ने इस निषाध राजकुमार को अमर कर दिया और भारतीय इतिहास में एकलव्य एक नाम ही नहीं बल्कि किवदंती बन गया |
चूकि हिरन्याधनुष मगध नरेश जरासंघ की सेना में सेनापति था अतः एकलव्य भी जरासंघ की सेना में शामिल हुआ और उसने जरासंघ के आदेश पर रुक्मणी के शिशुपाल के साथ विवाह के लिए , शिशुपाल और रुक्मणी के पिता भीष्मक के मध्य संदेशवाहक का कार्य किया और जरासंघ एवं यादवों के युद्ध में कृष्ण के हाथो मारा गया |
परन्तु आज भी कुछ समीक्षक गुरु द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा मांगना अनैतिक मानते है | पर इसी घटना ने एकलव्य को अमर कर दिया था और वैसे भी अगर एकलव्य सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होता तो निश्चित रूप से जरासंघ के पक्ष में लड़ता और अधर्म के पक्ष में लड़ने के कारण मारा भी जाता | पर उसकी कीर्ति को ग्रहण लग जाता और आज हम उसे इसतरह याद नहीं करते जिस तरह अब तक करते आये है| मैं इस महान गुरुभक्त को उसकी समर्पण भावना और गुरुभक्ति के लिए प्रणाम करता हूँ|
                                                  धन्यवाद |