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इस ब्लॉग का मुख्य मकसद नयी पीढ़ी में नई और विवेकपूर्ण सोच का संचार करना है|आज के हालात भी किसी महाभारत से कम नहीं है अतः हमें फिर से अन्याय के खिलाफ खड़ा करने की प्रेरणा केवल महाभारत दे सकता है|महाभारत और कुछ सन्दर्भ ब्लॉग महाभारत के कुछ वीरो ,महारथियों,पात्रो और चरित्रों को फिर ब्लोगिंग में जीवित करने का ज़रिया है|यह ब्लॉग महाभारत के पात्रों के माध्यम से आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है|

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Saturday, July 30, 2011

महाभारत और वीर अभिमन्यु :महाभारत ब्लॉग १०

वीर अभिमन्यु ,एक ऐसा व्यक्तित्व जिसकी वीरता ,पौरुष और मृत्यु ने तेहरवें दिन महाभारत के युद्ध की दिशा को बदल डाला|युद्ध के इस तेहरवें दिन ने न केवल युद्ध के तात्कालिक नियमो  को प्रभावित किया अपितु आज तक के सभी युद्धों में युद्ध नियमो की परिभाषा को पूर्णतः समाप्त कर दिया |महाभारत के इस विराट युद्ध से पहले ,युद्ध ,नियमो के अधीन लड़ा जाता था|जिसके अंतर्गत सूर्य उदय से पूर्व और सूर्य अस्त के पश्चात् युद्ध लड़ना और युद्ध  सबंधी कोई भी क्रियाकलाप किसी योद्धा के  कायर होने का सूचक था और युद्ध में निहत्थे योद्धा पर शस्त्र या अस्त्र चलाना किसी योद्धा के कायर होने का प्रमाण था|पर आज की युद्ध नीति में इन सभी नियमो का कोई अवशेष नहीं मिलता है|और ये परम्परा इसी महासमर के तेहरवें दिन के घटनाक्रम की देन है|
अभिमन्यु का जन्म अर्जुन की पत्नी सुभद्रा की कोख से हुआ था|सुभद्रा,जो कृष्ण और बलराम की बहन थी,एक अत्यंत आकर्षक और अस्त्र-शस्त्र चलने में निपुण युवती थी|अर्जुन ने  उसे रेवतक पर्वत पर यादवों के उत्सव में देखा और उसे मन ही मन पसंद कर लिया|बलराम सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करना चाहते थे पर कृष्ण को अपनी प्रिय बहन का विवाह दुर्योधन जैसे आततायी के साथ बर्दाश्त नहीं था अतः उन्होंने अर्जुन की इच्छा को जानते हुए उसे सुभद्रा से विवाह करने हेतु सुभद्रा का अपहरण करने की सलाह दी और अर्जुन के लिए अपहरण में प्रयुक्त रथ और अस्त्रों-शस्त्रों की व्यवस्था की|अर्जुन ने सुभद्रा का अपहरण कर उससे विवाह किया|पर इस पूरे प्रसंग में प्राचीन भारत की विवाह सम्बन्धी स्वछंदता का आभास मिलता है|क्योकि कुंती कृष्ण की बुआ थी और अर्जुन उसका बुआ पुत्र|पर फिर भी कृष्ण ने अपनी बहन का विवाह अर्जुन से करने में योगदान दिया,पर आज के हिन्दू समाज में ये विवाह अमान्य माना जाता|

अभिमन्यु जब सुभद्रा की कोख में था तब अर्जुन ने सुभद्रा को युद्ध में उपयोग आने वाली 'चक्रव्यूह ' रणनीति  का सविस्तार वर्णन सुनाया क्योकि उस समय केवल गुरु द्रोण,स्वयं अर्जुन और वासुदेव कृष्ण ही 'चक्रव्यूह ' में अंदर घुसना और उससे बाहर निकलना जानते थे|सुभद्रा ने चक्रव्यूह को तोड़ अंदर जाने की बात बड़े ध्यान से सुनी जिससे उसके गर्भ में पल रहे शिशु ने भी ग्रहण कर लिया पर जब अर्जुन उसे चक्रव्यूह से बाहर आने का मार्ग बताने लगा तब सुभद्रा को नींद आ गयी जिससे अभिमन्यु केवल अंदर जाने का रास्ता ही जान पाया|
अभिमन्यु के जन्म के पश्चात् पांडवों को १२ वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूरा करना था अतः अभिमन्यु द्वारका में वासुदेव कृष्ण के सानिध्य में पला-बढ़ा|अभिमन्यु में सदैव वासुदेव कृष्ण से चक्रव्यूह के पूरे चक्र को सीखने की कोशिश की पर वासुदेव ने उसे कभी बाद में तो कभी अपने पिता से सीखने को कहा|अभिमन्यु का विवाह मत्स्यराज की पुत्री उत्तरा से हुआ |उत्तरा अज्ञातवास के दौरान अर्जुन की शिष्या थी|
अभिमन्यु ,वासुदेव कृष्ण का भांजा और अर्जुन का पुत्र तो था ही पर उसमे अदभुत युद्ध कला थी जिसके दम पर वह अकेला ही कई सेनाओ पर भारी था|

जयसहिंता के अनुसार युद्ध के तेहरवें दिन कौरव सेना के प्रधान सेनापति आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने का विचार रखा ताकि युद्ध समाप्त हो जाये और पांडव हार जाये अतः उन्होंने युद्ध के भयंकरतम व्यूहों में एक 'चक्रव्यूह ' की रचना करने का विचार किया|वैसे युद्ध में कई युद्ध व्यूह उपयोग आते थे जैसे "सर्पव्यूह","कुर्मव्यूह"  आदि पर 'चक्रव्यूह ' सर्वाधिक भयंकर और दुर्जेय था|परन्तु पांडवों में अर्जुन और उनका सारथि मधुसूदन प्रत्येक व्यूह को तोडना जानते थे चाहे वो 'चक्रव्यूह ' क्यों न हो|अतः गुरु द्रोणाचार्य और दुर्योधन ने मिलकर सुशर्मा और उसके भाई को अर्जुन युद्ध लड़ते लड़ते उसे शेष पांडवो से दूर ले जाने के लिए कहा|
तेहरवे दिन सुबह सुशर्मा अर्जुन को लड़ते लड़ते दूर ले गया और अर्जुन की अनुपस्थिति में गुरु द्रोण ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने हेतु "चक्रव्यूह " रच डाला |पर वीर बालक अभिमन्यु ने,जिसकी वय बमुश्किल १६-१७ वर्ष होगी , चक्रव्यूह को तोड़ने की कला का रहस्योदघाटन करते हुए पांडव सेना की कमान संभाली|उसने अपने ताऊश्री युधिष्ठिर और भीम को अपने पीछे आने को कहा और 'चक्रव्यूह ' में घुस गया पर सिन्धु नरेश राजा  जयद्रथ, जिसे एक दिन अर्जुन के बिना पूरी पांडव सेना को रोक सकने का वरदान प्राप्त था,ने  युधिष्ठिर ,भीम इत्यादि को रोक लिया और अभिमन्यु को चक्रव्यूह में जाने दिया|अभिमन्यु में चक्रव्यूह को भेद डाला था और इसके प्रहरी दुर्योधन पुत्र लक्ष्मण और दुशासन पुत्र  को मार  डाला था |इसके उपरांत उसने अश्मक पुत्र,शल्य पुत्र रुध्मराथा ,द्रिघ्लोचन ,कुन्दवेदी ,शुसेना,वस्तिय आदि कई वीरो को यमराज के पास पंहुचा दिया|उसने द्वन्द युद्ध में कर्ण जैसे महारथी को घायल कर दिया और अश्वत्थामा ,क्रिपाचार्य और भूरिश्रवा जैसे रथियो को पराजित कर दिया|पर अपने प्रिय पुत्र लक्ष्मण की मृत्यु से बोखलाए दुर्योधन ने खतरे को भांपते हुए सभी महारथियों को बालक अभिमन्यु पर एक साथ प्रहार करने को कहा जिसके परिणामस्वरूप कर्ण,अश्वत्थामा ,भूरिश्रवा ,क्रिपाचार्य,द्रोणाचार्य ,शल्य,दुर्योधन,दुशासन जैसे महारथियों ने एक साथ अभिमन्यु पर प्रहार किया और उसके अस्त्र-शस्त्र समाप्त करवा दिए|फिर कर्ण ने उस बालक के रथ को तीर से तोड़ डाला और उस निहत्थे बालक पर सभी महारथी एक साथ टूट पड़े|वो निहत्था बालक रक्त की अंतिम बूँद तक इन महारथियों से रथ के पहिये को उठा कर लड़ा पर तलवारों ने उसकी जान ले ली|और फिर जयद्रथ ने बालक अभिमन्यु के शव को पाँव से मारा |"यह सब उसी प्रकार से था जैसे एक सिंह को सौ सियारों ने घेर कर मार डाला और फिर उस बहादुरी का जश्न मनाया हो|"

पर जो भी हो बालक अभिमन्यु की हत्या ने युद्ध नियमो की बलि ले ली|जिसका ज्यादा खामियाजा कौरवों ने ही भुगता क्योकि कर्ण , द्रोणाचार्य ,दुशासन,और दुर्योधन का वध युद्ध नियमो की इसी बलि के भेट चढ़ा क्योकि जब अधर्म अपनी पूरी नीचता पर उतर आता है तब वासुदेव कृष्ण जैसे नीतिज्ञ भी अधर्म को उसकी औकात दिखा ही देता है|
वैसे अभिमन्यु वध महारथी कर्ण और गुरु द्रोणाचार्य के जीवन में कलंक साबित हुआ और इसी घटना ने इन महारथियों की मृत्यु का मार्ग प्रशस्त किया|कर्ण वध और द्रोणाचार्य वध को इतिहास अभिमन्यु वध के पश्चात् ही तो उचित मानता!!!!
वीर अभिमन्यु को मेरा सदर नमन|
                                                 धन्यवाद|

Wednesday, July 20, 2011

महाभारत और महारथी कर्ण :महाभारत ब्लॉग ९

महाभारत की पूरी कथा में इसके प्रत्येक किरदार का कुछ न कुछ योगदान अवश्य ही रहा है और प्रत्येक किरदार की किसी न किसी गुणधर्म विशेष के प्रति निष्ठा भी अवश्य रही है |जिस प्रकार कृष्ण की धर्म स्थापना में निष्ठा रही और युधिष्ठिर की धर्म पालन में,उसी प्रकार महारथी कर्ण की अपने मित्र दुर्योधन में निष्ठा ही इस युद्ध के अठारह दिन चलने और इतने सैनिकों और इतने महारथियों के विनाश का कारण बनी|वैसे इस महारथी की दुर्योधन के प्रति निष्ठा इसके शापित भाग्य और स्वयं इस के प्रति पूर्व में किये गए भेदभाव का परिणाम था परन्तु  इस दानवीर कर्ण को द्रोपदी वस्त्रहरण और अभिमन्यु वध के लिए इतिहास सदैव दोषी बताता रहेगा|पर जो  भी हो ,नियति का क्रूर मज़ाक जो इस महारथी के साथ हुआ है वो शायद वासुदेव कृष्ण को भी धर्म से अच्युत कर देता|पर जो वासुदेव कृष्ण धर्म की रक्षा के लिए अपने कुल का नाश भी स्वीकार करता हो उसे भला कौनसी शक्ति अपनी निष्ठा से भटका सकती है|

महारथी कर्ण का जन्म माता कुंती की कोख से सूर्य के वरदान स्वरुप हुआ था|परन्तु विवाह पूर्व  कर्ण का जन्म हो जाने के कारण कुंती ने अपने पिता के स्वाभिमान की रक्षा हेतु इस परम तेजस्वी एवं कुंडल और कवच धारी शिशु का परित्याग कर दिया और सूर्य देवता से मुआफ़ी मागते हुए उसे आशीर्वाद देकर नदी में प्रवाहित कर दिया|ये नियति का पहला पासा था जिसने  कर्ण को जन्म लेते ही मात दे दी|नदी में प्रवाहित ये शिशु एक निःसंतान दम्पति के हाथ लगा जिसने इसे अपने पास रख लिया और इस शिशु के माता-पिता बन गए |यह दम्पति वस्तुतः एक सूत जाति के थे जो हस्तिनापुर में निवास करते थे|सूत वो जिनका धर्म ही था रथ हाँकना|अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा और शापित भाग्य लिए ये लड़का धनुर्विद्या में महारथ हासिल किये हुए था|और इसी धनुर्विद्या का परीक्षण करने ये लड़का जब द्रोणाचार्य निर्मित शस्त्रशाला में गया और अर्जुन से चुनौती करने लगा तब अर्जुन और अन्य पांडवो ने इसे प्रतिस्पर्धा करने के अयोग्य माना क्योकि उनके मतानुसार एक सूत पुत्र राजकुमारों से प्रतिस्पर्धा कैसे कर सकता था?और तो और पांडवो ने उसे सूत पुत्र कह अपमानित किया और कहा-"सूत पुत्र को केवल रथ हाँकना ही शोभा देता है,क्षत्रिय राजकुमारों की तरह धनुष बाण नहीं|"
दुर्योधन जो उस समय किशोर अवस्था में था ,पांडवों से चिढ़ता था और पांडवों के कौशल को देख हीन भावना से ग्रसित था,ने उस लड़के कर्ण को देखा और उसके सामर्थ्य को भी|अतः इस परम राजनीतिज्ञ दुर्योधन ने कर्ण को प्रश्रय दिया तथा उसे अपना मित्र बना लिया|अपने अपमान से कुंठित कर्ण दुर्योधन जैसे राजकुमार का साथ पाकर अत्यंत प्रसन्न और कृतज्ञ  हुआ|और उस कर्ण को पांडवो और विशेष रूप से अर्जुन से घृणा सी हो गयी|

जब शिक्षा प्राप्त करने कर्ण द्रोणाचार्य के पास पहुचा तब गुरु द्रोणाचार्य ने उसे मना कर दिया और उसे अपनी जाति का कर्म करने को कहा अतः कर्ण ने मन में ठान लिया कि उसे द्रोणाचार्य जैसे ही गुरु से शिक्षा प्राप्त करनी है इसलिए वह गुरु परसराम के पास पहुचा जो केवल ब्राह्मणों को ही शस्त्र शिक्षा देते थे|अतः वो लड़का शिक्षा प्राप्त करने हेतु ब्राह्मण का छदम भेष धर गुरु परसराम से शिक्षा प्राप्त करने लगा|पर जब किसी कारण वश गुरु परसराम को उसके ब्राह्मण न होने का पता चला तब उसे फिर श्राप मिला कि-"हे छदम रूप धारी शिष्य ! जब तुम्हे मुझसे सीखी हुई विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी तब तुम इसे भूल जाओगे "|ये नियति का दूसरा पासा था जिसने इस युवक कर्ण को मात दे दी|
जब कर्ण शिक्षा प्राप्त कर हस्तिनापुर पहुचा तब कूटनीतिज्ञ दुर्योधन ने उसे मित्रता स्वरुप अंगदेश का राज्य दे दिया जिसे कर्ण ने स्वामी का सेवक के प्रति उपकार मानते हुए ग्रहण किया|वैसे तो दुर्योधन कर्ण को अपना सच्चा मित्र मानता था और उस पर अत्यधिक विश्वास भी करता था पर शायद कर्ण की मित्रता दुर्योधन के पांडवो से भयभीत होने के कारण फलीभूत हुई|
अपने जन्म के रहस्य से अनभिज्ञ इस महारथी ने अपने सूत माता पिता की खूब सेवा की और सूत माता राधा के नाम से 'राधेय' कहलाने लगा|राधेय कर्ण सही मायनों  में राधेय ही था क्योकि जन्म देना माता का कर्तव्य होता है पर लालन पालन करना माता का धर्म होता है और जो माता सही मायनों में दोनों कर्तव्यों का पालन करती हो वो शिशु की पूर्ण माता होती है|पर इस भौतिक संसार में जो माता शिशु का लालन पालन करती है  वो जन्म देने वाली माता से महान होती है|स्वयं देवकी नंदन कृष्ण 'यशोदानंदन ' कहने पर ज्यादा प्रसन्न होते है|
अंगदेश का राजा बनने के पश्चात् कर्ण ने कई युद्धों में अपनी वीरता प्रमाणित की|पर वीर कर्ण न केवल वीर था अपितु एक बड़ा दानी भी|कहते है कि भोर में कर्ण से जो कोई भी कुछ भी मांगता था वो कभी खाली हाथ नहीं जाता था|पर इस ख्याति के बाबजूद इस दानवीर कर्ण का अपमान होना रूक जाता तो इतिहास इस सुर्यपुत्र को कभी अधर्म के साथ होने  का दोषी न मानता पर जब द्रोपदी के स्वयंवर में जब महारथी कर्ण प्रतिज्ञा पूरी करने उतरा जब द्रोपदी ने इस 'सूतपुत्र ' को बाण चलाने से ये कहते हुए रोक लिया कि विवाह समान कुल में होता है किसी सूत पुत्र के साथ नहीं|और फिर इस अपमान ने कर्ण को द्रोपदी के प्रति भी घृणा भाव से भर दिया|
दुर्योधन और शकुनी की संगति ने दुर्योधन के इस घृणा भाव को प्रतिशोध में बदल दिया और अंततः जब एक वस्त्रा द्रोपदी को बालों से घसीटकर कुरु राज्य सभा में लाया गया तब कर्ण ने न केवल द्रोपदी वस्त्रहरण का समर्थन किया अपितु उसे पांच पुरुषों के साथ रहने वाली 'वेश्या ' कहा|और 'वेश्या 'का कोई सम्मान नहीं होता ,यह तर्क देकर वस्त्रहरण को उचित ठहराया|बस यही वो पल थे जब इस महारथी में धर्म का दमन छोड़ दिया और अपनी मत्यु की भूमिका तैयार कर ली|
चूकी कर्ण के पास सूर्य देव का दिया कवच और कुंडल था अतः युद्ध में कर्ण का वध असंभव था अतः वासुदेव कृष्ण ने प्रतिज्ञा के जाल में उलझा कर कर्ण के कवच -कुंडल लेने की योजना तैयार की और देवराज इन्द्र को ब्राहमण का रूप धर प्रातःकाल कवच और कुंडल लाने को कहा ताकि धर्म की विजय हो सके|पर दानवीर कर्ण ने कवच -कुंडल के बिना अपनी मत्यु जानते हुए भी कवच और कुंडल दान में दे दिए| 
पर युद्ध के आरंभ होते -होते यह दानवीर यह समझ चुका था कि वो इस युद्ध में अधर्म के पक्ष में है और जहाँ वासुदेव कृष्ण जैसा नीतिज्ञ हो उस पक्ष की विजय निश्चित है क्योकि वासुदेव  कृष्ण तो स्वयं उसी पक्ष में रहते है जहाँ धर्म का पलड़ा भारी होता है|परन्तु कर्ण को दुर्योधन से निष्ठा का रोग था जिसने उसकी विवेक बुद्धि को निगल लिया था और उसे दुर्योधन का क़र्ज़ उतारने के लिए विवश कर दिया था|
युद्ध के मध्य में जब उसे कुंती का अपनी माता होने और पांडवो का अपने भाई होने का पता चला तब भी दुर्योधन के अहसानों के बोझ तले दबा ये 'राधेय ' अपनी निष्ठा प्रमाणित करने हेतु पांडवों के विरुद्ध लड़ा|और माता कुंती को वचन दिया किया युद्ध के पश्चात् भी उसके पांच पुत्र शेष रहेगे चाहे वो मरे या अर्जुन |वो महारथी युद्ध भूमि में भी अर्जुन से लड़ा और कर्ण-अर्जुन युद्ध के पहले दिन उसने अर्जुन को निरुतर कर दिया पर सूर्य डूब जाने के कारण नियमानुसार अर्जुन का वध नहीं किया पर वासुदेव कृष्ण इस बात को समझ चुके थे कि बिना किसी नियम को तोड़े कर्ण वध संभव नहीं है अतः दुसरे दिन उन्होंने रथ का पहिया लगा रहे कर्ण पर अर्जुन से बाण चलवा कर कर्ण का वध करवा दिया|
मैं मानता हूँ कि वासुदेव कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने निहत्थे कर्ण को मार डाला पर क्या पहले कर्ण ने युद्ध नियम तोड़ कर अभिमन्यु को नहीं मारा था?और क्या धर्म एक कर्ण के कारण हार जाता?मेरे अनुसार धर्म की विजय जरूरी है चाहे हथकंडे नियमानुसार हो या न हो|जिस प्रकार कर्ण ने दुर्योधन के प्रति निष्ठा नहीं छोड़ी और अधर्म के पक्ष में लड़ा तो क्या वासुदेव कृष्ण धर्म स्थापना के प्रति अपनी निष्ठा छोड़ देते?चाहे कर्ण दानवीर हो या महारथी ,चाहे कौन्तेय रहे या राधेय परन्तु धर्म सबसे ऊपर ही रहेगा |
                                                                                            धन्यवाद|

Friday, July 15, 2011

महाभारत और हिडिम्बा :महाभारत ब्लॉग ८

यूँ तो महाभारत में प्रत्येक किरदार का अपना -अपना महत्व है किन्तु कुछ किरदारों की भूमिका छोटी होने के बाबजूद बहुत महत्वपूर्ण और सारगर्भित होती है|ऐसे ही पात्र की चर्चा आज हम करेंगे जो भूमिका छोटी होने के बाद भी अमिट छाप छोड़ जाती है|
महाभारत का ये युद्ध हुआ था न्याय और अन्याय के बीच परन्तु धर्म और अधर्म दोनों ने ही युद्ध  जीतने के लिए युद्ध में वर्जित प्रत्येक हथकंडे को अपनाया|अभिमन्यु वध,द्रोणाचार्य वध ,कर्ण वध,दुस्शासन वध ,जयद्रथ वध आदि  इन्ही कथित हथकंडों से सम्बंधित हैं|परन्तु इस युद्ध में मायावी अथार्थ राक्षसी शक्तियों का प्रयोग भी किया गया|इन सभी मायावी शक्तियों के प्रयोग ने इस युद्ध की दशा और दिशा बदल डाली|कुछ मायावी शक्तियां दुर्योधन के पक्ष से लड़ी और घटोत्कच नाम की मायावी शक्ति धर्म के पक्ष में लड़ी|अतः अब हम घटोत्कच के युद्ध में बलिदान और उसकी माता हिडिम्बा के योगदान की चर्चा करेंगे|
हिडिम्बा ,एक राक्षसी समाज की युवती थी|राक्षस अथार्थ रक्ष जो यक्ष,दक्ष एवं रक्ष तीन मानव नस्लों में से एक थे|चुकि आर्यों(दक्षो ) का भारतवर्ष पर नियंत्रण था अतः उन्होंने रक्षो को जंगलो और काननो ने धकेल दिया|वैसे रक्ष आर्यों से कम सुशिक्षित और मानवभोजी होते थे परन्तु दक्षो से अधिक शारीरिक क्षमता और मायावी शक्तियों से युक्त होते थे|पर सभी रक्ष संगठित और सामाजिक नहीं थे अतः अपने बुद्धि बल और सामाजिक संगठन की बदौलत दक्षो ने रक्षो को सीमित और शक्तिविहीन कर दिया था|
  हिडिम्बा ,इसी समाज में पैदा हुई थी तथा अपने भाई हिडिम्ब के साथ वन में रहती थी|दोनों भाई-बहनों का पूरे जंगल में बहुत आतंक था तथा सभी मानव यहांतक की ऋषि-मुनि भी इस वन में रहने से भय खाते थे क्योकि ये राक्षस न केवल उदरपूर्ति के लिए जंगल के वनचरों को खाते थे अपितु मौका लगने पर मानवो का सुस्वाद मांस भी नहीं  छोड़ते थे|अतः दोनों भाई बहन जंगल में राजा की तरह रहते थे |
लाक्षाग्रह के भीषण कांड के बाद पांडव भी जंगलों में इधर उधर भटक रहे थे|अतः संयोगवश पांडव और माता कुंती उसी वन में पहुचे जहाँ हिडिम्ब और हिडिम्बा का आतंक था|सूचना मिलने पर दोनों भाई बहन मानवों का सुस्वाद मांस खाने के लिए इनके पास गए |वहां जब हिडिम्बा ने भीम को देखा तब उसके राक्षसी डील ड़ोल को देख हिडिम्बा कुछ मोहित सी हो गयी|परन्तु भाई हिडिम्ब के मन में तो मानव मांस की इच्छा थी अतः उसने पांड्वो को ललकारा और डराने लगा|पर भीम जो स्वयं कई हाथियों का बल रखता था ,माता  से आज्ञा लेकर हिडिम्ब से लड़ने और उसका वध करने गया जहाँ भयंकर द्वंद युद्ध में भीम ने हिडिम्ब को मार दिया पर हिडिम्बा को अपने भाई की मृत्यु का कोई अफ़सोस नहीं हुआ बल्कि भीम के इस अमानवीय कृत को देख वो उस पर मोहित हो उठी तथा भीम से उसने प्रणय निवेदन किया|पर भीम ने इसे अस्वीकार करते हुए माता कुंती से आज्ञा लेने  को कहा|  
पहली मर्तबा प्रेम के वशीभूत वो राक्षस कन्या भीम से निराश होकर माता कुंती के पास गयी परन्तु बड़े पुत्र युधिष्ठिर के विवाह न होने के कारण,कुंती ने हिडिम्बा के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया परन्तु जब हिडिम्बा ने केवल प्रणय की बात कही और केवल पुत्र प्राप्ति का लक्ष्य बताया तब कुंती ने इस राक्षस कन्या के इस दीन निवेदन को स्वीकार कर लिया तथा वन में भीम और हिडिम्बा प्रणय रत हुए|जहाँ हिडिम्बा के गर्भ से भीम पुत्र घटोत्कच का जन्म हुआ जो आधा दक्ष और आधा रक्ष था|
उस घटना के बाद भीम तो लौट गए पर हिडिम्बा ने घटोत्कच को राक्षसी संस्कार नहीं सिखाये न ही मानवो का मांस खाना अपितु उसे  अपने पिता की तरह वीरता और मानवता की भलाई की शिक्षा दी|वैसे तो राक्षस कन्या के गर्भ से जन्म लेने के कारण घटोत्कच बलिष्ठ और मायावी था परन्तु उसने राक्षसों जैसे कर्म नहीं किये|जब महाभारत के युद्ध की सूचना हिडिम्बा को मिली तब उस माता ने अपने पुत्र की जान की परवाह करे बगैर धर्म के युद्ध में अपने पुत्र को लड़ने को भेजा वो जानती थी की उसके पुत्र के पास मायावी शक्ति और शारीरिक बल के अलावा कोई शस्त्र और अस्त्र नहीं है और इस युद्ध में कर्ण जैसे महारथी उसे मार ही देंगे पर माता के स्नेह को संतुलित कर उसने घटोत्कच को धर्म युद्ध में पिता के पक्ष में लड़ने भेजा|
जब इस महासमर में घटोत्कच लड़ने आया तब दुर्योधन भी कुछ राक्षसों का प्रयोग  करने पर उतर आया था परन्तु घटोत्कच ने सर्वप्रथम उन राक्षसों को मारा जो दुर्योधन के पक्ष में थे|उसके बाद वो कौरव सेना पर कहर बन कर टूट पड़ा|कहते है कि महारथी कर्ण के पास एक ऐसा बाण था जो उसे सूर्य देव से वरदान में प्राप्त हुआ था और अर्जुन के वध के लिए उसने उसे संभाल कर रखा था|पर घटोत्कच के कहर और प्रहार से बोखलाए दुर्योधन ने कर्ण को उस बाण को चलाने को कहा ताकि घटोत्कच नाम कि ये वर्तमान समस्या का निदान हो जाये अतः युवराज दुर्योधन की आज्ञा से कर्ण ने अपना बाण घटोत्कच पर चला दिया जिससे घटोत्कच की मृत्यु हो गयी|
इस युद्ध में घटोत्कच नाम का शूरवीर तो मारा गया पर उसने कर्ण-अर्जुन युद्ध में अर्जुन की मृत्यु टाल दी|और अर्जुन वो जिसके बाणो के नीचे सभी पांडव सुरक्षित थे|अतः यहाँ से ही धर्म विजय सुनिश्चित हुई|
यूँ तो हिडिम्बा का युद्ध में कोई शारीरिक योगदान नहीं था पर मानसिक और भावनात्मक 'बलिदान ' अवश्य था|उसने न केवल अपने पुत्र के धर्म के पक्ष में लड़ने भेजा अपितु रक्ष कुल का गौरव भी बढाया|और उसका यही "बलिदान" धर्म युद्ध में धर्म की विजय में परिणित हुआ|अतः उस राक्षस कन्या को मेरा सदर नमन|
                                                                                       धयवाद| 

Tuesday, July 12, 2011

महाभारत और माता कुंती : महाभारत ब्लॉग ७

जयसंहिता अथार्त विजय ग्रन्थ  में यूँ तो कई महारथी थे और कई रथी भी|महारथी, वो जो युद्ध में कई रथों का उपयोग कर सकता था  और एक रथ के टूट जाने पर अन्य रथों पर आरूढ़ हो सकता था और रथी ,वह जो केवल एक रथ पर ही युद्ध कर सकता था |रथी और महारथी का निर्णय उस व्यक्ति की शस्त्र और अस्त्र चलाने की क्षमता पर निर्भर था |पर किसी युद्ध के महारथी और रथियों की संख्या संभवतः उन वीरो की माताओ पर निर्भर है कि वो अपने पुत्र को वीरता का पाठ पढ़ाती है या भीरुता का|

माता कुंती उन माताओ में से जिन्होंने अपने पुत्रों को न केवल वीरता का पाठ पढाया अपितु उन्होंने अपने पुत्रों को सदैव मानवता और न्याय का मार्ग भी दिखलाया|यूँ तो माता कुंती का अधिकांश जीवन वनों ,पहाड़ों ,गुफाओ ,कंदराओ और आश्रमों में गुजरा परन्तु इतना सब होते हुए भी उन्हें कभी वैभव और आरामतलबी से कभी आसक्ति नहीं हुई और न ही उन्होंने अपने पुत्रो को इन सभी संसाधनों से आसक्ति होने दी|

माता कुंती  का जन्म राजा सूरसेन  के राजभवन में हुआ था जो वासुदेव के पिता थे|इस तरह माता कुंती वासुदेव कृष्ण की बुआ थी|माता कुंती का प्रारंभिक नाम पृथा था पर  उन्हें संतानविहीन राजा कुन्तिभोज ने गोद ले लिया  अतः उनका नाम कुंती पड़ गया |कुंती को गोद लेने के उपरांत कुन्तिभोज के पुत्र हुआ अतः उन्होंने कुंती को भाग्यवर्धक मानते हुए विवाह होने तक उनकी परवरिश की|
कुंती के जीवनकाल में एक अभूतपूर्व घटना का महत्व बहुत है|माता कुंती को ऋषि दुर्वासा ने एक मंत्र दिया जिसके द्वारा माता कुंती किसी भी देवता का आवहान करके पुत्र प्राप्त कर सकती थी|परन्तु युवती कुंती ने मंत्र की विश्वसनीयता जांचने हेतु उसे सूर्य देव का आवहान करते हुए प्रयोग किया |जिस तरह धनुष से निकला बाण कभी वापस नहीं जाता उसी तरह मंत्र का प्रभाव भी निरर्थक नहीं होता |अतः युवती कुंती विवाह पूर्व ही गर्भवती हो गयी तथा उनके गर्भ से एक पुत्र जन्मा जो सूर्य के सामान कान्ति युक्त और कवच व कुंडल धारण किये था|परन्तु युवती कुंती ने उसे पिता के सम्मान क्षय हो जाने के भय से नदी में प्रवाहित कर दिया|माता कुंती एक माता थी और अपने पुत्र को सीने पर पत्थर रखकर नदी में प्रवाहित करने वाली एक असाधारण नारी भी|
तदनुपरांत उनका विवाह पाण्डु से हुआ|और वो हस्तिनापुर की महारानी बन गयी|चूकि राजा पाण्डु का स्नायु तंत्र कमजोर था और उसे कामारक्त होने पर अत्यधिक उतेज़ना होती थी जिसे वह काबू नहीं कर पाता था|अतः कामारक्त होने पर उसे मृत्यु का भय था|कहते है कि एक बार राजा पाण्डु ने रतिसुख में रत एक हिरन के जोड़े को बाणों से मारा था परन्तु दुर्भाग्य से वो जोड़ा साधू किन्दम और उनकी पत्नी थी अतः उन्होंने पाण्डु को श्राप दिया  कि वो भी जब मारा जायेगा जब वो किसी स्त्री से रत होने लगेगा|राजा पाण्डु ने कुंती के अलावा मद्र देश की राजकुमारी माद्री से भी विवाह किया|
अपनी स्नायु तंत्र की कमजोरी को दूर करने  और किन्दम के वध के प्राश्चित के लिए पाण्डु ने अघोषित वनवास लिया जहाँ उसके साथ उसकी पत्नियाँ कुंती व माद्री भी थी|वहां कुंती ने अपने पति की पुत्र की कामना पूरी करने हेतु ऋषि दुर्वासा के मंत्र और "निरोध " द्वारा धर्म के आवहान करने पर युधिष्ठिर ,वायु देव के आवहान से भीम एवं इन्द्र के आवहान पर अर्जुन की उत्पत्ति की|चूकि "निरोध " द्वारा केवल तीन पुत्र ही धर्मसंगत थे अतः ये मंत्र कुंती ने माद्री को दिया जिससे माद्री ने  अश्विनी कुमारों के आवहान द्वारा नकुल और सहदेव को जन्म दिया|अतः पांच पांडव राजा पाण्डु के क्षेत्रज्ञ पुत्र कहलाये|
परन्तु एक दिन माद्री के स्नान करते हुए राजा पाण्डु कामारक्त हो गया तथा रति सुख को व्याकुल हो उठा |अपने पति की इस अवस्था को देख माद्री भी रति हो गयी और रत होने लगी परन्तु पाण्डु स्नायु तंत्र की कमजोरी को संभाल नहीं पाया और उसके प्राण पखेरू उड़ गए|
तत्पश्चात माद्री भी अपने पति की मृत्यु का दोषी स्वयं को मानते हुए राजा पाण्डु के साथ सती हो गयी|अब माता कुंती के कंधो पर पांचों पांडवों का भार आ गया |उन्होंने न केवल अपने पुत्रो का लालन पालन किया अपितु माद्री पुत्रो को भी स्नेहयुक्त ममता दी|कहते है कि नकुल और सहदेव को वो स्वयं अपने हाथों से खाना  खिलाती थी और जब लाक्षाग्रह में सुरंग से जाने की बारी तब भी उन्होंने नकुल और सहदेव को पहले भेजा |"वैसे माता केलिए पुत्र ,पुत्र ही होता है|चाहे पुत्र कोई भी हो"|
माता कुंती ने न केवल माता का कर्तव्य निभाया अपितु शिक्षक का भी|उन्होंने सदैव पांड्वो को धर्म का पाठ ही पढाया |और अन्याय के विरूद्ध लड़ना भी सिखाया |परन्तु उनका एक अभागा पुत्र ऐसा भी था जो माता कुंती का स्नेहयुक्त आँचल न पा सका|वो था राधेय कर्ण,जो एक तरह से शापित था अपनी ही पहचान और वीरता से|जब माता कुंती को पाता चला कि उनका एक पुत्र कर्ण अधर्म के साथ खड़ा है तब उन्होंने इसे नियति माना|और धर्म कि विजय हेतु पांडवो को कर्ण का वध करने की आज्ञा भी दी|अब कौन समझाए माता के हृदय को जो अपने पुत्र  को खोना नहीं चाहता किन्तु माता कुंती तो कुंती ही थी जो केवल धर्म के आगे पुत्र का बलिदान दे सकती थी|

कहने को तो माता कुंती ने धर्म विजय में कोई शस्त्र नहीं उठाया पर उनका काम था ऐसे पुत्रों का लालन पालन करना जो इस धर्म के भवन में मुख्य द्वारपाल और रक्षक थे|वैसे तो महाभारत की नीव पहले ही डल चुकी थी पर इस महाभारत में धर्म विजय की नीव माता कुंती ने अपने पुत्रो के सही और बेहतर लालन पालन से डाली|ऐसी माता कुंती ,जो अपने पुत्रो को केवल धर्म और न्याय के साथ खड़ा होना सिखा कर गयी ,को मेरा सादर नमन|
                                              धन्यवाद|

Thursday, July 07, 2011

महाभारत और पितामह भीष्म:महाभारत ब्लॉग ६

महाभारत  ,एक ऐसा युद्ध जहाँ न केवल पांड्वो और कौरवों के आपसी हित टकराए अपितु इस युद्ध ने आर्यावर्त  से अत्यंत वीर व दिव्यास्त्र धारी अनेक वीर पुरुषों की एक पौध ख़त्म कर दी|क्योकि इन परम वीर व शक्तिसंपन्न योद्धाओं के रहते पृथ्वी पर शांति स्थापित  करना कतई मुमकिन नहीं था अतः ये युद्ध केवल धर्म स्थापना के लिए ही नहीं अपितु आर्यावर्त से दिव्यास्त्रों की विद्या को विस्मृत करने का भी माध्यम था|इस युद्ध के बाद न कोई योद्धा दिव्यास्त्रों  का उपयोग करता देखा गया और न किसी ऐसे योद्धा की चर्चा हुई जो केवल दिव्यास्त्रो के बल पे युद्ध विजय करता हो|कालांतर  में दिव्यास्त्रो की विद्या और विधि आर्यावर्त से सदैव के लिए ख़त्म हो गयी |
आज हम ऐसे ही एक योद्धा  के बारे में चर्चा करेंगे जो अत्यंत वीर एवं दिव्यास्त्र धारी थे |उनके जैसा वीर और धैर्यवान व्यक्ति इतिहास  में देखे नहीं मिलता है|हम आजदेवव्रत  (भीष्म) के योगदान की चर्चा करेंगे|
राजकुमार देवव्रत का जन्म राजा शांतनु  के राजभवन में माता गंगा की कोख से हुआ था |एक दिन जब राजा शांतनु गंगा तट पर सैर के लिए गए तब गंगा से उन्हें एक अत्यंत  तेजस्वी युवती अवतरित  होते दिखाई दी|शांतनु उस युवती के रूप व यौवन  को देख मुग्ध हो गए तथा उस युवती के सामने विवाह प्रस्ताव रखा|वो युवती माता गंगा थी ,उन्होंने विवाह प्रस्ताव तो मान लिया परन्तु  शर्त रख दी की अगर शांतनु ने जीवन में कभी भी उनसे कटु बात कही तो वो राजभवन  छोड़ कर वापस गंगा में विलीन हो जाएगी|

उसके  बाद माता गंगा के सात पुत्र हुए परन्तु सभी को वो गंगा नदी में फ़ेंक आई|परन्तु जब आठवे पुत्र का जन्म हुआ तब शांतनु को क्रोध आ गया और उन्होंने गंगा को कटु बाते कह दी तब माता गंगा  ने कहा "हे शांतनु मैं आपके धैर्य की परीक्षा ले रही थी |आप बहुत ही धैर्यवान  राजा है जिसने अपने सात पुत्रों को मरने तक दिया परन्तु जैसे मैंने वचन  लिया था की अगर आप मुझसे कटु बात कहेंगे तो मैं राजभवन छोड़ गंगा में विलीन  हो जाउंगी |किन्तु आपका आठवां पुत्र जीवित रहेगा और इसे वरदान  होगा की ये जब चाहे तब मृत्यु को प्राप्त होवे"|ऐसा कह माता गंगा चली गयी परन्तु उस पुत्र का नाम देवव्रत हुआ और उसे इच्छामृत्यु  का वरदान मिला|

राजकुमार  देवव्रत ने माता सत्यवती की इच्छा और पिता शांतनु कि प्रतिज्ञा पूरी करने हेतु आजीवन अविवाहित रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की|अतः उनका नाम 'भीष्म  ' पड़ गया|क्योकि राजा शांतनु की प्रतिज्ञानुसार  माता सत्यवती का पुत्र ही राजा बनता  पर अगर भीष्म विवाह कर लेते तो उनका पुत्र ही राजा बनता |
भीष्म  गुरु परसराम  के शिष्य थे|वो अत्यंत वीर और दिव्यास्त्रो युक्त धनुर्धर एवं रणनीतिकार  थे|कहते है कि अत्यंत दुर्बल शासको के रहते हुए भी हस्तिनापुर पर कोई राजा आक्रमण करने का साहस नहीं करता था क्योकि वहां एक ऐसा वीर योद्धा विद्धमान था जो अकेले ही कई सेनाओ पर भारी था और वो परमवीर  भीष्म था|

कालांतर में माता सत्यवती ने भी भीष्म से एक वचन और मांग लिया कि वो जब तक हस्तिनापुर में कोई योग्य शासक ना आ जाये तब तक हस्तिनापुर के राज्यसिंहासन  की रक्षा करेंगे |अतः उन्होंने उस वचन को भी पूरी शिद्दत  से निभाया|
भीष्म ने अपने दोनों वचनों की रक्षा हेतु आजीवन  संघर्ष किया और निभाया भी|जब उन्होंने विचित्रवीर्य के लिए काशी की राजकुमारियो अम्बा,अम्बिका और अम्बालिका  का अपहरण किया तब धर्मानुसार  अम्बा ने अपहरण करने वाले व्यक्ति से ही विवाह की जिद की|परन्तु भीष्म ने धर्म को ताक में रखकर अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा की|और यहीं से उनकी मृत्यु की भूमिका तैयार हो गयी क्योकि अम्बा ने प्रतिशोध  लेने हेतु स्वयं को अग्नि में आत्मसात कर दिया और शिखंडी के रूप में पुनर्जन्म  लिया जो बाद में भीष्म की मृत्यु का कारण बना|
महाभारत कथा में भीष्म हस्तिनापुर की सेना से लड़े |देवव्रत जैसा भीष्म व्यक्तित्व  क्यों अधर्म के पक्ष में लड़ा ?क्यों वो महान व्यक्तित्व कुरु राज्यसभा में द्रोपद्धि वस्त्रहरण का विरोध नहीं कर पाया?क्यों वो ध्रितराष्ट्र के विवाह हेतु गंधार  राज्य को शक्ति का भय दिखा कर आया ?और क्यों उन्होंने सदैव ध्रितराष्ट्र को उसके कुकृत्यों के लिए क्षमा किया?इन सभी सवालों के जवाब है कि पितामह भीष्म कभी भी धर्म और प्रतिज्ञा के उस मामूली अंतर को नहीं समझ पाए जहाँ तक वासुदेव कृष्ण और महात्मा विधुर पहुच गए थे|उन्होंने बेशक अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा तो कर ली परन्तु धर्म का क्या|
पितामह भीष्म सदैव धर्म को जानने की जिज्ञासा लिए कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में हस्तिनापुर से लड़े|माना सदैव वे जानते थे कि दुर्योधन सिर्फ अन्याय कर रहा है परन्तु प्रतिज्ञा कि रक्षा के लिए वो युवराज दुर्योधन कि सेना में थे|
सर्वश्रेठ धनुर्धर अर्जुन और पितामह  भीष्म के भयंकर युद्ध में जब भीष्म पांडव सेना और अर्जुन पे भारी पड़ने लगे तब युद्ध में शस्त्र ना उठाने की प्रतिज्ञा लिए हुए वासुदेव कृष्ण ने भी रणभूमि में रथ का पहिया उठा लिया और भीष्म की तरफ दौड़ पड़े|शायद ये वासुदेव कृष्ण का भीष्म की वीरता को प्रणाम था|
अगली सुबह भीष्म का कोई तोड़ ना होने के कारण युद्धभूमि में वासुदेव कृष्ण के परामर्शानुसार शिखंडी जो कि ना पूरी तरह नर था और ना ही पूरी तरह नारी ,को अर्जुन के रथ पे बैठाया गया और चुकि भीष्म जैसा सिद्धांत वादी कभी नारी पर बाण नहीं छोड़ता अतः अर्जुन ने शिखंडी को आगे करके भीष्म पर बाणों की बौछार कर दी और भीष्म को बाणों की शैय्या पर लिटा क्रियाविहीन  कर दिया|
युद्ध के ख़त्म होने के बाद भीष्म ने इच्छामृत्यु ग्रहण कर ली|पर एक भीष्म ही थे जिनकी दृष्टि के सामने महाभारत की नीव रखी जा रही थी और वो योद्धा प्रतिज्ञा की पट्टी बांधे सिर्फ इस युद्ध का सृजन कर रहा था|वो इसी चिंतन में रहा की धर्म क्या और अधर्म क्या |और इधर कुरु राज्यसभा में धर्म लगातार बेआबरू होता रहा|वो एक भीष्म व्यक्तित्व जरुर थे और अनवरत प्रतिज्ञा की रक्षा करते रहे पर धर्म का क्या!!
धन्यवाद|

Tuesday, July 05, 2011

महाभारत और महात्मा विधुर :महाभारत ब्लॉग ५

जयसहिंता के इस अध्याय में मैं सर्वथा उस पात्र के विषय में  चर्चा करूँगा जो इस महासमर में धर्म और नीति की ज्वलंत मशाल थामे रहा|ये मशाल केवल और केवल धर्म का मार्ग प्रशस्त करती रही|वह चरित्र विधुर थे जिन्हें स्वयं वासुदेव कृष्ण ने  'महात्मा ' कहा|अतः उस महात्मा विधुर को मेरा सादर नमन|
विधुर का जन्म तो हुआ था हस्तिनापुर के राजप्रासाद में परन्तु कुल की दृष्टि से उन्हें 'दासीपुत्र ' कहा गया |क्योकि उनका जन्म एक साधारण दासी के गर्भ से विचित्रवीर्य के क्षेत्रज्ञ पुत्र के रूप में कृष्ण द्वेपायन  द्वारा "निरोध " प्रथा से हुआ था|चूकिं वे विचित्रवीर्य के क्षेत्रज्ञ पुत्र थे अतः उन्हें राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा दीक्षा दी गयी परन्तु दासीपुत्र होने के कारण अन्य राजकुमारों पाण्डु व ध्रितराष्ट्र  की भांति उन्हें राजा बनने का  अधिकार नहीं दिया गया|
वे पाण्डु के राजा बनने पर हस्तिनापुर के महामंत्री नियुक्त हुए |उनका विवाह परसंवी से हुआ|दोनों ही पति-पत्नी स्वभाव से साधु एवं परम सात्विक थे |विधुर शस्त्र विद्या में उतने पारंगत नहीं थे परन्तु शास्त्र के ज्ञान में महर्षिवेदव्यास वेदव्यास को छोड़ किसी की भी उनसे तुलना नहीं की जा सकती थी|चूँकि माता सत्यवती उनकी इस क्षमता से परिचित थी अतः पाण्डु के मरने के उपरान्त ध्रतराष्ट्र के राजा बनने पर माता सत्यवती ने उनसे सदैव ध्रतराष्ट्र के साथ रहने का वचन मांग लिया क्योकि वे विधुर की धर्म नीति को जानती थी और ये भी जानती थी कि विधुर के रहते ध्रतराष्ट्र धर्म के विरुद्ध काम नहीं करेगा और उस पर कोई संकट नहीं आएगा |
उन्होंने सदैव धर्म को संरक्षण दिया |उन्होंने धर्म और पाण्डु पुत्रो कि रक्षार्थ न केवल हस्तिनापुर में उनका साथ दिया अपितु लाक्षाग्रह जैसे षड़यंत्र से भी पांड्वो की रक्षा की|उन्होंने ही पांड्वो को दुर्योधन के विरूद्ध नीति का मार्ग सुझाया और संगठन की शक्ति का रहस्य बताया |उन्होंने कौरवों और पांड्वो में केवल धर्म का भेद किया अतः वे केवल धर्म के पक्ष में रहे |जहाँ धर्म होता वो उसी के साथ बोलते थे चाहे वो कौरवों के पक्ष में हो या पांडवों के|
अगर इस महासमर के पात्रो को देखा जाये तो केवल यही व्यक्ति मिलेगा जो अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी अपने मार्ग से नहीं डिगा| यहाँ तक हस्तिनापुर में दुर्योधन से प्राण भय होने के बावजूद वो सदैव सत्य और धर्म की बाते हस्तिनापुर राज्यसभा में बोलते रहे |उन्होंने द्रोपदी वस्त्रहरण का उस समय भी पुरजोर विरोध किया जब राज्यसभा में पितामह भीष्म ,गुरु द्रोण जैसे सम्मानीय व्यक्ति मौन बैठे थे |वे तो  इस धूतक्रीडा  के ही विरोध में थे जो पांड्वो को कंगाल करने के षड़यंत्र स्वरुप करवाई गयी थी|

जब वासुदेव कृष्ण कुरु राज्यसभा में शांति का प्रस्ताव लेकर आये तब एक विधुर ही थे जिन्होंने ध्रितराष्ट्र से उस प्रस्ताव  को मानने की विनती की|परन्तु  "नियति की  लिखावट को आज तक कोई विधुर बदल सका है भला!!"
परन्तु इतिहास गवाह है कि ये महासमर हुआ और कौरवों का सर्वनाश भी|वो कुरु राज्यसभा में बैठा विधुर भी युद्ध न रोक सका क्योकि विधुर शायद अकेला पड़ गया उन अनेक ध्रितराष्ट्र के सामने|आज भी शायद विधुर अकेला है और ध्रितराष्ट्र अनेक|
वो महात्मा विधुर प्रकाश का प्रतीक हो गया और ध्रितराष्ट्र अन्धकार का|इतिहास की यही लिखावट उस 'दासीपुत्र ' को उन कुलीन क्षत्रियो से भी महान बनाती है|
                                                                                      धन्यवाद|

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Sunday, July 03, 2011

महाभारत और गांधारी:महाभारत ब्लॉग ४


कुरुक्षेत्र के इस महासमर मे कुछ लोग धर्म के पक्ष मे रहे और कुछ अधर्म के  पक्ष मे|परन्तु माता गांधारी इस कथा के प्रारंभ मे अधर्म के पक्ष मेऔरअंत मे धर्म के पक्ष मे रही|
ये माता गांधारी का आत्मसम्मान ही था जो उन्हे इस कथा के अंत मे धर्म की ओर अग्रसर करता रहा और ये ही माता गांधारी का आत्मसम्मान था की उन्हे कथा के प्रारंभ मे अधर्म और प्रतिशोध की ओर अग्रसर होना पड़ा|
गांधारी गंधारनरेश की पुत्री व गंधार देश की राजकुमारी थी|शकुनी गंधार देश का युवराज और गांधारी का भाई था|चूकि हस्तिनापुर के बड़े राजकुमार धरिष्तराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे इस कारणवश भीष्म और अन्य कुरूजनो को उसके विवाह की चिंता सताने लगी क्योकि कोई भी राजकुमारी इस अंधे राजकुमार को स्वयंवर मे तो वरमाला नही पहनाती अतः ये आवश्यक हो गया था कि किसी राजकुमारी का अपहरण कर उसे उसकी पत्नी बना दिया जाए|परन्तु अंबिका जो धरिष्ठराष्ट्र की माता थी ,ने इस कुकृत्य के लिए मना कर दिया क्योकि वो स्वयं ये अधर्म भुगत चुकी थी|
अतः भीष्म धरिष्ठराष्ट्र की रिश्ता लेकर गंधारनरेश के पास गये परन्तु उन्होने इस रिश्ते के लिए कठोर शब्दो मे मना कर दिया|चूकि गंधार सैन्य दृष्टि से कुरूओ से कमजोर था अतः भीष्म ने विवाह ना करने पे युद्ध की चेतावनी दी|

तब राष्ट्र भक्त गंधारो ने कुरू सेना से अपने राज्य के विनाश से बेहतर राजकुमारी का विवाह उचित समझा|परंतु वे इस अपमान के घूट को पी ना पाए तथा राजकुमार शकुनी व गांधारी ने कुरुकुल के विनाश की शपथ ले ली|इसी प्रतिशोध की आग मे गांधारी ने जीवनपर्यंत आँखो पे पट्टी बाँधने का निश्चया किया और स्वयं भी आँखो से हस्तिनापुर ना देखने का प्रण किया|इसी ज्वाला मे शकुनी भी जल उठा तथा हस्तिनापुर को बर्बाद करने हेतु गांधारी के साथ हस्तिनापुर चला गया|
हस्तिनापुर मे माता गांधारी ने अपने पुत्र को हस्तिनापुर का युवराज बनाने के लिए माता कुंती के पुत्र से पहले जन्म देना चाहा परन्तु देवयोग से ये हो ना सका|अतः उन्होने क्रोध मे अपने गर्भ पर  घुसो से मारा और उस समय पुत्र गर्भ से गिर गया पर वह पुत्र हालातों से मुकाबला करके बच गया तथा इस तरह की युद्धजनक परिस्थितियो मे बच निकलने के कारण उसका नाम सुयोधन रखा गया|

उन्होने प्रारंभ मे सुयोधन के मन मे अपनी महत्वकाँशा की परते जमाई परन्तु बाद मे शकुनी के अधार्मिक आचरण को समझ उन्होने कुरू राज्यसभा मे द्रोपद्दि के वस्त्रहरण का विरोध किया|
अब समय के साथ माता गांधारी अधर्म को समझ चुकी थी तथा उन्हे इस बात का भलीभाँति ज्ञान हो गया था कि शकुनी का साथ व अधर्म की नीति उनके पुत्रो के लिए घातक है|
परन्तु धर्म युद्ध के समय जब सुयोधन(दुर्योधन) उनसे विजय का  आशीर्वाद माँगने आया तब उन्होने धर्म की रक्षा के लिए उसे विजयश्री का आशीर्वाद नही दिया|एसा करके उन्होने धर्म के प्रति अपनी निष्ठा दिखाई|
परंतु माता की अपने पुत्रो के प्रति निष्ठा कभी कम नही होती अतः उन्होने युद्ध  के आख़िर मे दुर्योधन को अपने सतीत्व का कवच पहनाकर उसके शरीर को लोहे  के समान  कठोर बना दिया|इसी  पुत्र निष्ठा के अधीन होकर उन्होंने वासुदेव कृष्ण  को श्राप  भी दिया की "हे वासुदेव कृष्ण ! तुम चाहते तो ये युद्ध टल सकता था,तुम्हारे ही रोष के कारण ये युद्ध हुआ है अतः मैं तुम्हे श्राप देती हु की जिस तरह मैंने अपने सौ पुत्र खोये है उसी तरह तुम्हारे कुल भी नाश हो जायेगा और  चाहे तुम मानव हो या भगवान् परन्तु एक साधारण व्याघ्र के हाथो मारे जाओगे  "|
परन्तु माता गांधारी भरत कुल की सभी माताओ में  सर्वश्रेठ थी क्योकि न केवल उन्होंने धर्म का पालन किया अपितु माता होने का कर्तव्य का भी पूर्ण निर्वहन किया|
आज जब भी इस महासमर की बातें होती है तब धर्म की विजय और अधर्म की पराजय के बारे में बोला जाता है परन्तु इस महासमर में सभी ने कुछ  न कुछ खोया है ;और माता गांधारी ने धर्म की विजय के खातिर अपना सबकुछ खोया है |वे इस युद्ध में धर्म की ओर से खडी एक पराजित योद्धा थी|परन्तु सौ पुत्र खोने के बाद भी धर्म से मुख न मोड़ने के कारण इस गंधार राजकुमारी को इतिहास सदैव याद रखेगा| 
                                                                                धन्यवाद|  


Friday, July 01, 2011

महाभारत और गुरु द्रोणाचार्य:महाभारत ब्लॉग ३


गुरु द्रोणाचार्य,ना केवल धनुरविद्या के महान आचार्य अपितु स्वयंभु श्रेष्ठ धनुर्धर,गुरु परसराम के शिष्य व एक अतन्त उत्कर्ष सेनानायक थे|इस जयसहिंता मे उनके योगदान के बारे चर्चा करना केवल और केवल सूर्य को दीपक दिखाने के समान है|वे उन महान योद्दाओ के सृजनकार थे जिन्होंने इस धर्म कुंड मे वीरता की आहुति दी|
गुरु द्रोणाचार्य का जन्म एक ब्राह्मण कुल मे हुआ था|उन्होने गुरु परसराम से अस्त्र शस्त्र की विधया प्राप्त की|वहाँ उनकी मुलाकात द्रुपद से हुई जो उनका गुरु भाई था|उनका विवाह कृपाचर्या की भगिनी क्रपी से हुआ तथा उनके गर्भ से अश्वत्थामा की उत्पत्ति हुई|गुरु द्रोणाचार्य अत्यंत संतोषी ब्राह्मण थे तथा जो मिलता था उससे अपनी उदरपूर्ति कर लेते थे परंतु उन्हे अपने पुत्र से बहुत प्रेम था|
लेकिन एक दिन जब उन्होने देखा क़ि उनकी पत्नी अपने पुत्र को गाय का दूध पिलाने मे असमर्थ थी तो अश्वत्थामा को चावल के पानी मे शर्करा घोल के पिला रही है तब उनके मन मे अपने पुत्र को गाय का दूध पिलाने के लिए धन संग्रह की इच्छा हुई| अतः वे अपने गुरु भाई द्रुपद के पास गये तब द्रुपद ने उन्हे पहचानने से भी इनकार कर दिया तथा उन्हे अपमानित कर भगा दिया|
तब अपने गुरुभाई के व्यवहार से दुखी द्रोणाचार्य ने द्रुपद से प्रतिशोध लेने हेतु अपने पत्नी के भाई कृपचर्या  के पास गये|जहाँ भीष्म ने कुरू राजकुमारो की शिक्षा हेतु उन्हे हस्तिनापुर मे स्थान दिया|उन्होने सभी कुरू राजकुमारो को आस्त्रो व शस्त्रो की शिक्षा दी|
अर्जुन उनका प्रिय शिष्य था तथा अपने पुत्र के बाद वे अर्जुन को सबसे ज़्यादा स्नेह देते थे अतः उन्होने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का आशीर्वाद दिया|
अतः अपने वचन को पूरा करने के लिए उन्होने एकलव्य का अंगूठा कटवा लिया तथा कर्ण जैसे शिष्य को भी विधयादान से मना कर दिया|
उन्होने अर्जुन जैसे महान योद्दा तो दिए परंतु द्रुपद से प्रतिहिंसा की भावना के कारण सर्वप्रथम उन्होने द्रुपद को पांडव की सहायता से बंदी बना कर उनका आधा राज्य छीन लिया|इस कारण द्रुपद ने भी बदला लेने हेतु धृाष्तधुम्न को तैयार किया|
अब हम गुरु द्रोणाचार्य के कुछ कृत्यो की चर्चा करेंगे जिस के कारण उन्हे इतना महान होते हुए भी धर्म युद्ध मे अधर्म के साथ खड़ा होना पड़ा|सर्वप्रथम वे उस राज्य सभा मे कुछ नही बोले जहाँ द्रोपति जैसी नारी का वस्त्राहरण हुआ|क्योकि उनकी धर्म दृष्टि को पुत्र मोह ने ढक लिया था| इसके बाद वे सबकुछ जानते हुए भी कौरवो पक्ष मे युद्ध लड़े |
लेकिन इसके बाद भी अभिमन्यु वध के लिए उन्हे इतिहास कभी  क्षमा नही करेगा क्योकि उनके सेनापति रहते हुए अभिमन्यु की निर्मम हत्या कर दी गयी|
वो पिता जिसकी आँख पे पुत्र मोह की पट्टी बँधी हुई है तथा इसके फलस्वरूप वो प्रकाश एवं अंधकार का निर्णया नही कर पा रहा है तब ना केवल वो अपने पुत्र का अहित कर रहा है अपितु अपनी आत्मा का भी क्षय कर रहा है|
मेरा मानना है कि गुरु द्रोणाचार्य की धृाष्तधुम्न के हाथो हुई हत्या एक धोखा हो सकता है परन्तु धर्म की विजय के लिए ये आवश्यक था क्योकि उस महान योद्धा के रहते धर्म की विजय संभव नही थी और धर्म कोई एसी वस्तु नही जिसे एक द्रोणाचार्य के लिए अधर्म की रखैल बना दिया जाए|
                                                                          धन्यवाद|