जयसहिंता के इस अध्याय में मैं सर्वथा उस पात्र के विषय में चर्चा करूँगा जो इस महासमर में धर्म और नीति की ज्वलंत मशाल थामे रहा|ये मशाल केवल और केवल धर्म का मार्ग प्रशस्त करती रही|वह चरित्र विधुर थे जिन्हें स्वयं वासुदेव कृष्ण ने 'महात्मा ' कहा|अतः उस महात्मा विधुर को मेरा सादर नमन|
विधुर का जन्म तो हुआ था हस्तिनापुर के राजप्रासाद में परन्तु कुल की दृष्टि से उन्हें 'दासीपुत्र ' कहा गया |क्योकि उनका जन्म एक साधारण दासी के गर्भ से विचित्रवीर्य के क्षेत्रज्ञ पुत्र के रूप में कृष्ण द्वेपायन द्वारा "निरोध " प्रथा से हुआ था|चूकिं वे विचित्रवीर्य के क्षेत्रज्ञ पुत्र थे अतः उन्हें राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा दीक्षा दी गयी परन्तु दासीपुत्र होने के कारण अन्य राजकुमारों पाण्डु व ध्रितराष्ट्र की भांति उन्हें राजा बनने का अधिकार नहीं दिया गया|
वे पाण्डु के राजा बनने पर हस्तिनापुर के महामंत्री नियुक्त हुए |उनका विवाह परसंवी से हुआ|दोनों ही पति-पत्नी स्वभाव से साधु एवं परम सात्विक थे |विधुर शस्त्र विद्या में उतने पारंगत नहीं थे परन्तु शास्त्र के ज्ञान में महर्षिवेदव्यास वेदव्यास को छोड़ किसी की भी उनसे तुलना नहीं की जा सकती थी|चूँकि माता सत्यवती उनकी इस क्षमता से परिचित थी अतः पाण्डु के मरने के उपरान्त ध्रतराष्ट्र के राजा बनने पर माता सत्यवती ने उनसे सदैव ध्रतराष्ट्र के साथ रहने का वचन मांग लिया क्योकि वे विधुर की धर्म नीति को जानती थी और ये भी जानती थी कि विधुर के रहते ध्रतराष्ट्र धर्म के विरुद्ध काम नहीं करेगा और उस पर कोई संकट नहीं आएगा |
उन्होंने सदैव धर्म को संरक्षण दिया |उन्होंने धर्म और पाण्डु पुत्रो कि रक्षार्थ न केवल हस्तिनापुर में उनका साथ दिया अपितु लाक्षाग्रह जैसे षड़यंत्र से भी पांड्वो की रक्षा की|उन्होंने ही पांड्वो को दुर्योधन के विरूद्ध नीति का मार्ग सुझाया और संगठन की शक्ति का रहस्य बताया |उन्होंने कौरवों और पांड्वो में केवल धर्म का भेद किया अतः वे केवल धर्म के पक्ष में रहे |जहाँ धर्म होता वो उसी के साथ बोलते थे चाहे वो कौरवों के पक्ष में हो या पांडवों के|
अगर इस महासमर के पात्रो को देखा जाये तो केवल यही व्यक्ति मिलेगा जो अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी अपने मार्ग से नहीं डिगा| यहाँ तक हस्तिनापुर में दुर्योधन से प्राण भय होने के बावजूद वो सदैव सत्य और धर्म की बाते हस्तिनापुर राज्यसभा में बोलते रहे |उन्होंने द्रोपदी वस्त्रहरण का उस समय भी पुरजोर विरोध किया जब राज्यसभा में पितामह भीष्म ,गुरु द्रोण जैसे सम्मानीय व्यक्ति मौन बैठे थे |वे तो इस धूतक्रीडा के ही विरोध में थे जो पांड्वो को कंगाल करने के षड़यंत्र स्वरुप करवाई गयी थी|
जब वासुदेव कृष्ण कुरु राज्यसभा में शांति का प्रस्ताव लेकर आये तब एक विधुर ही थे जिन्होंने ध्रितराष्ट्र से उस प्रस्ताव को मानने की विनती की|परन्तु "नियति की लिखावट को आज तक कोई विधुर बदल सका है भला!!"
परन्तु इतिहास गवाह है कि ये महासमर हुआ और कौरवों का सर्वनाश भी|वो कुरु राज्यसभा में बैठा विधुर भी युद्ध न रोक सका क्योकि विधुर शायद अकेला पड़ गया उन अनेक ध्रितराष्ट्र के सामने|आज भी शायद विधुर अकेला है और ध्रितराष्ट्र अनेक|
वो महात्मा विधुर प्रकाश का प्रतीक हो गया और ध्रितराष्ट्र अन्धकार का|इतिहास की यही लिखावट उस 'दासीपुत्र ' को उन कुलीन क्षत्रियो से भी महान बनाती है|
धन्यवाद|