महाभारत ,एक ऐसा युद्ध जहाँ न केवल पांड्वो और कौरवों के आपसी हित टकराए अपितु इस युद्ध ने आर्यावर्त से अत्यंत वीर व दिव्यास्त्र धारी अनेक वीर पुरुषों की एक पौध ख़त्म कर दी|क्योकि इन परम वीर व शक्तिसंपन्न योद्धाओं के रहते पृथ्वी पर शांति स्थापित करना कतई मुमकिन नहीं था अतः ये युद्ध केवल धर्म स्थापना के लिए ही नहीं अपितु आर्यावर्त से दिव्यास्त्रों की विद्या को विस्मृत करने का भी माध्यम था|इस युद्ध के बाद न कोई योद्धा दिव्यास्त्रों का उपयोग करता देखा गया और न किसी ऐसे योद्धा की चर्चा हुई जो केवल दिव्यास्त्रो के बल पे युद्ध विजय करता हो|कालांतर में दिव्यास्त्रो की विद्या और विधि आर्यावर्त से सदैव के लिए ख़त्म हो गयी |
आज हम ऐसे ही एक योद्धा के बारे में चर्चा करेंगे जो अत्यंत वीर एवं दिव्यास्त्र धारी थे |उनके जैसा वीर और धैर्यवान व्यक्ति इतिहास में देखे नहीं मिलता है|हम आजदेवव्रत (भीष्म) के योगदान की चर्चा करेंगे|
राजकुमार देवव्रत का जन्म राजा शांतनु के राजभवन में माता गंगा की कोख से हुआ था |एक दिन जब राजा शांतनु गंगा तट पर सैर के लिए गए तब गंगा से उन्हें एक अत्यंत तेजस्वी युवती अवतरित होते दिखाई दी|शांतनु उस युवती के रूप व यौवन को देख मुग्ध हो गए तथा उस युवती के सामने विवाह प्रस्ताव रखा|वो युवती माता गंगा थी ,उन्होंने विवाह प्रस्ताव तो मान लिया परन्तु शर्त रख दी की अगर शांतनु ने जीवन में कभी भी उनसे कटु बात कही तो वो राजभवन छोड़ कर वापस गंगा में विलीन हो जाएगी|
उसके बाद माता गंगा के सात पुत्र हुए परन्तु सभी को वो गंगा नदी में फ़ेंक आई|परन्तु जब आठवे पुत्र का जन्म हुआ तब शांतनु को क्रोध आ गया और उन्होंने गंगा को कटु बाते कह दी तब माता गंगा ने कहा "हे शांतनु मैं आपके धैर्य की परीक्षा ले रही थी |आप बहुत ही धैर्यवान राजा है जिसने अपने सात पुत्रों को मरने तक दिया परन्तु जैसे मैंने वचन लिया था की अगर आप मुझसे कटु बात कहेंगे तो मैं राजभवन छोड़ गंगा में विलीन हो जाउंगी |किन्तु आपका आठवां पुत्र जीवित रहेगा और इसे वरदान होगा की ये जब चाहे तब मृत्यु को प्राप्त होवे"|ऐसा कह माता गंगा चली गयी परन्तु उस पुत्र का नाम देवव्रत हुआ और उसे इच्छामृत्यु का वरदान मिला|
राजकुमार देवव्रत ने माता सत्यवती की इच्छा और पिता शांतनु कि प्रतिज्ञा पूरी करने हेतु आजीवन अविवाहित रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की|अतः उनका नाम 'भीष्म ' पड़ गया|क्योकि राजा शांतनु की प्रतिज्ञानुसार माता सत्यवती का पुत्र ही राजा बनता पर अगर भीष्म विवाह कर लेते तो उनका पुत्र ही राजा बनता |
भीष्म गुरु परसराम के शिष्य थे|वो अत्यंत वीर और दिव्यास्त्रो युक्त धनुर्धर एवं रणनीतिकार थे|कहते है कि अत्यंत दुर्बल शासको के रहते हुए भी हस्तिनापुर पर कोई राजा आक्रमण करने का साहस नहीं करता था क्योकि वहां एक ऐसा वीर योद्धा विद्धमान था जो अकेले ही कई सेनाओ पर भारी था और वो परमवीर भीष्म था|
कालांतर में माता सत्यवती ने भी भीष्म से एक वचन और मांग लिया कि वो जब तक हस्तिनापुर में कोई योग्य शासक ना आ जाये तब तक हस्तिनापुर के राज्यसिंहासन की रक्षा करेंगे |अतः उन्होंने उस वचन को भी पूरी शिद्दत से निभाया|
भीष्म ने अपने दोनों वचनों की रक्षा हेतु आजीवन संघर्ष किया और निभाया भी|जब उन्होंने विचित्रवीर्य के लिए काशी की राजकुमारियो अम्बा,अम्बिका और अम्बालिका का अपहरण किया तब धर्मानुसार अम्बा ने अपहरण करने वाले व्यक्ति से ही विवाह की जिद की|परन्तु भीष्म ने धर्म को ताक में रखकर अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा की|और यहीं से उनकी मृत्यु की भूमिका तैयार हो गयी क्योकि अम्बा ने प्रतिशोध लेने हेतु स्वयं को अग्नि में आत्मसात कर दिया और शिखंडी के रूप में पुनर्जन्म लिया जो बाद में भीष्म की मृत्यु का कारण बना|
महाभारत कथा में भीष्म हस्तिनापुर की सेना से लड़े |देवव्रत जैसा भीष्म व्यक्तित्व क्यों अधर्म के पक्ष में लड़ा ?क्यों वो महान व्यक्तित्व कुरु राज्यसभा में द्रोपद्धि वस्त्रहरण का विरोध नहीं कर पाया?क्यों वो ध्रितराष्ट्र के विवाह हेतु गंधार राज्य को शक्ति का भय दिखा कर आया ?और क्यों उन्होंने सदैव ध्रितराष्ट्र को उसके कुकृत्यों के लिए क्षमा किया?इन सभी सवालों के जवाब है कि पितामह भीष्म कभी भी धर्म और प्रतिज्ञा के उस मामूली अंतर को नहीं समझ पाए जहाँ तक वासुदेव कृष्ण और महात्मा विधुर पहुच गए थे|उन्होंने बेशक अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा तो कर ली परन्तु धर्म का क्या|
पितामह भीष्म सदैव धर्म को जानने की जिज्ञासा लिए कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में हस्तिनापुर से लड़े|माना सदैव वे जानते थे कि दुर्योधन सिर्फ अन्याय कर रहा है परन्तु प्रतिज्ञा कि रक्षा के लिए वो युवराज दुर्योधन कि सेना में थे|
सर्वश्रेठ धनुर्धर अर्जुन और पितामह भीष्म के भयंकर युद्ध में जब भीष्म पांडव सेना और अर्जुन पे भारी पड़ने लगे तब युद्ध में शस्त्र ना उठाने की प्रतिज्ञा लिए हुए वासुदेव कृष्ण ने भी रणभूमि में रथ का पहिया उठा लिया और भीष्म की तरफ दौड़ पड़े|शायद ये वासुदेव कृष्ण का भीष्म की वीरता को प्रणाम था|
अगली सुबह भीष्म का कोई तोड़ ना होने के कारण युद्धभूमि में वासुदेव कृष्ण के परामर्शानुसार शिखंडी जो कि ना पूरी तरह नर था और ना ही पूरी तरह नारी ,को अर्जुन के रथ पे बैठाया गया और चुकि भीष्म जैसा सिद्धांत वादी कभी नारी पर बाण नहीं छोड़ता अतः अर्जुन ने शिखंडी को आगे करके भीष्म पर बाणों की बौछार कर दी और भीष्म को बाणों की शैय्या पर लिटा क्रियाविहीन कर दिया|
युद्ध के ख़त्म होने के बाद भीष्म ने इच्छामृत्यु ग्रहण कर ली|पर एक भीष्म ही थे जिनकी दृष्टि के सामने महाभारत की नीव रखी जा रही थी और वो योद्धा प्रतिज्ञा की पट्टी बांधे सिर्फ इस युद्ध का सृजन कर रहा था|वो इसी चिंतन में रहा की धर्म क्या और अधर्म क्या |और इधर कुरु राज्यसभा में धर्म लगातार बेआबरू होता रहा|वो एक भीष्म व्यक्तित्व जरुर थे और अनवरत प्रतिज्ञा की रक्षा करते रहे पर धर्म का क्या!!
धन्यवाद|