कुरुक्षेत्र के इस महासमर मे कुछ लोग धर्म के पक्ष मे रहे और कुछ अधर्म के पक्ष मे|परन्तु माता गांधारी इस कथा के प्रारंभ मे अधर्म के पक्ष मेऔरअंत मे धर्म के पक्ष मे रही|
ये माता गांधारी का आत्मसम्मान ही था जो उन्हे इस कथा के अंत मे धर्म की ओर अग्रसर करता रहा और ये ही माता गांधारी का आत्मसम्मान था की उन्हे कथा के प्रारंभ मे अधर्म और प्रतिशोध की ओर अग्रसर होना पड़ा|
गांधारी गंधारनरेश की पुत्री व गंधार देश की राजकुमारी थी|शकुनी गंधार देश का युवराज और गांधारी का भाई था|चूकि हस्तिनापुर के बड़े राजकुमार धरिष्तराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे इस कारणवश भीष्म और अन्य कुरूजनो को उसके विवाह की चिंता सताने लगी क्योकि कोई भी राजकुमारी इस अंधे राजकुमार को स्वयंवर मे तो वरमाला नही पहनाती अतः ये आवश्यक हो गया था कि किसी राजकुमारी का अपहरण कर उसे उसकी पत्नी बना दिया जाए|परन्तु अंबिका जो धरिष्ठराष्ट्र की माता थी ,ने इस कुकृत्य के लिए मना कर दिया क्योकि वो स्वयं ये अधर्म भुगत चुकी थी|
अतः भीष्म धरिष्ठराष्ट्र की रिश्ता लेकर गंधारनरेश के पास गये परन्तु उन्होने इस रिश्ते के लिए कठोर शब्दो मे मना कर दिया|चूकि गंधार सैन्य दृष्टि से कुरूओ से कमजोर था अतः भीष्म ने विवाह ना करने पे युद्ध की चेतावनी दी|
तब राष्ट्र भक्त गंधारो ने कुरू सेना से अपने राज्य के विनाश से बेहतर राजकुमारी का विवाह उचित समझा|परंतु वे इस अपमान के घूट को पी ना पाए तथा राजकुमार शकुनी व गांधारी ने कुरुकुल के विनाश की शपथ ले ली|इसी प्रतिशोध की आग मे गांधारी ने जीवनपर्यंत आँखो पे पट्टी बाँधने का निश्चया किया और स्वयं भी आँखो से हस्तिनापुर ना देखने का प्रण किया|इसी ज्वाला मे शकुनी भी जल उठा तथा हस्तिनापुर को बर्बाद करने हेतु गांधारी के साथ हस्तिनापुर चला गया|
हस्तिनापुर मे माता गांधारी ने अपने पुत्र को हस्तिनापुर का युवराज बनाने के लिए माता कुंती के पुत्र से पहले जन्म देना चाहा परन्तु देवयोग से ये हो ना सका|अतः उन्होने क्रोध मे अपने गर्भ पर घुसो से मारा और उस समय पुत्र गर्भ से गिर गया पर वह पुत्र हालातों से मुकाबला करके बच गया तथा इस तरह की युद्धजनक परिस्थितियो मे बच निकलने के कारण उसका नाम सुयोधन रखा गया|
उन्होने प्रारंभ मे सुयोधन के मन मे अपनी महत्वकाँशा की परते जमाई परन्तु बाद मे शकुनी के अधार्मिक आचरण को समझ उन्होने कुरू राज्यसभा मे द्रोपद्दि के वस्त्रहरण का विरोध किया|
अब समय के साथ माता गांधारी अधर्म को समझ चुकी थी तथा उन्हे इस बात का भलीभाँति ज्ञान हो गया था कि शकुनी का साथ व अधर्म की नीति उनके पुत्रो के लिए घातक है|
परन्तु धर्म युद्ध के समय जब सुयोधन(दुर्योधन) उनसे विजय का आशीर्वाद माँगने आया तब उन्होने धर्म की रक्षा के लिए उसे विजयश्री का आशीर्वाद नही दिया|एसा करके उन्होने धर्म के प्रति अपनी निष्ठा दिखाई|
परंतु माता की अपने पुत्रो के प्रति निष्ठा कभी कम नही होती अतः उन्होने युद्ध के आख़िर मे दुर्योधन को अपने सतीत्व का कवच पहनाकर उसके शरीर को लोहे के समान कठोर बना दिया|इसी पुत्र निष्ठा के अधीन होकर उन्होंने वासुदेव कृष्ण को श्राप भी दिया की "हे वासुदेव कृष्ण ! तुम चाहते तो ये युद्ध टल सकता था,तुम्हारे ही रोष के कारण ये युद्ध हुआ है अतः मैं तुम्हे श्राप देती हु की जिस तरह मैंने अपने सौ पुत्र खोये है उसी तरह तुम्हारे कुल भी नाश हो जायेगा और चाहे तुम मानव हो या भगवान् परन्तु एक साधारण व्याघ्र के हाथो मारे जाओगे "|
परन्तु माता गांधारी भरत कुल की सभी माताओ में सर्वश्रेठ थी क्योकि न केवल उन्होंने धर्म का पालन किया अपितु माता होने का कर्तव्य का भी पूर्ण निर्वहन किया|
आज जब भी इस महासमर की बातें होती है तब धर्म की विजय और अधर्म की पराजय के बारे में बोला जाता है परन्तु इस महासमर में सभी ने कुछ न कुछ खोया है ;और माता गांधारी ने धर्म की विजय के खातिर अपना सबकुछ खोया है |वे इस युद्ध में धर्म की ओर से खडी एक पराजित योद्धा थी|परन्तु सौ पुत्र खोने के बाद भी धर्म से मुख न मोड़ने के कारण इस गंधार राजकुमारी को इतिहास सदैव याद रखेगा|
धन्यवाद|