स्वागतम्

इस ब्लॉग का मुख्य मकसद नयी पीढ़ी में नई और विवेकपूर्ण सोच का संचार करना है|आज के हालात भी किसी महाभारत से कम नहीं है अतः हमें फिर से अन्याय के खिलाफ खड़ा करने की प्रेरणा केवल महाभारत दे सकता है|महाभारत और कुछ सन्दर्भ ब्लॉग महाभारत के कुछ वीरो ,महारथियों,पात्रो और चरित्रों को फिर ब्लोगिंग में जीवित करने का ज़रिया है|यह ब्लॉग महाभारत के पात्रों के माध्यम से आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है|

पृष्ठ

Tuesday, July 12, 2011

महाभारत और माता कुंती : महाभारत ब्लॉग ७

जयसंहिता अथार्त विजय ग्रन्थ  में यूँ तो कई महारथी थे और कई रथी भी|महारथी, वो जो युद्ध में कई रथों का उपयोग कर सकता था  और एक रथ के टूट जाने पर अन्य रथों पर आरूढ़ हो सकता था और रथी ,वह जो केवल एक रथ पर ही युद्ध कर सकता था |रथी और महारथी का निर्णय उस व्यक्ति की शस्त्र और अस्त्र चलाने की क्षमता पर निर्भर था |पर किसी युद्ध के महारथी और रथियों की संख्या संभवतः उन वीरो की माताओ पर निर्भर है कि वो अपने पुत्र को वीरता का पाठ पढ़ाती है या भीरुता का|

माता कुंती उन माताओ में से जिन्होंने अपने पुत्रों को न केवल वीरता का पाठ पढाया अपितु उन्होंने अपने पुत्रों को सदैव मानवता और न्याय का मार्ग भी दिखलाया|यूँ तो माता कुंती का अधिकांश जीवन वनों ,पहाड़ों ,गुफाओ ,कंदराओ और आश्रमों में गुजरा परन्तु इतना सब होते हुए भी उन्हें कभी वैभव और आरामतलबी से कभी आसक्ति नहीं हुई और न ही उन्होंने अपने पुत्रो को इन सभी संसाधनों से आसक्ति होने दी|

माता कुंती  का जन्म राजा सूरसेन  के राजभवन में हुआ था जो वासुदेव के पिता थे|इस तरह माता कुंती वासुदेव कृष्ण की बुआ थी|माता कुंती का प्रारंभिक नाम पृथा था पर  उन्हें संतानविहीन राजा कुन्तिभोज ने गोद ले लिया  अतः उनका नाम कुंती पड़ गया |कुंती को गोद लेने के उपरांत कुन्तिभोज के पुत्र हुआ अतः उन्होंने कुंती को भाग्यवर्धक मानते हुए विवाह होने तक उनकी परवरिश की|
कुंती के जीवनकाल में एक अभूतपूर्व घटना का महत्व बहुत है|माता कुंती को ऋषि दुर्वासा ने एक मंत्र दिया जिसके द्वारा माता कुंती किसी भी देवता का आवहान करके पुत्र प्राप्त कर सकती थी|परन्तु युवती कुंती ने मंत्र की विश्वसनीयता जांचने हेतु उसे सूर्य देव का आवहान करते हुए प्रयोग किया |जिस तरह धनुष से निकला बाण कभी वापस नहीं जाता उसी तरह मंत्र का प्रभाव भी निरर्थक नहीं होता |अतः युवती कुंती विवाह पूर्व ही गर्भवती हो गयी तथा उनके गर्भ से एक पुत्र जन्मा जो सूर्य के सामान कान्ति युक्त और कवच व कुंडल धारण किये था|परन्तु युवती कुंती ने उसे पिता के सम्मान क्षय हो जाने के भय से नदी में प्रवाहित कर दिया|माता कुंती एक माता थी और अपने पुत्र को सीने पर पत्थर रखकर नदी में प्रवाहित करने वाली एक असाधारण नारी भी|
तदनुपरांत उनका विवाह पाण्डु से हुआ|और वो हस्तिनापुर की महारानी बन गयी|चूकि राजा पाण्डु का स्नायु तंत्र कमजोर था और उसे कामारक्त होने पर अत्यधिक उतेज़ना होती थी जिसे वह काबू नहीं कर पाता था|अतः कामारक्त होने पर उसे मृत्यु का भय था|कहते है कि एक बार राजा पाण्डु ने रतिसुख में रत एक हिरन के जोड़े को बाणों से मारा था परन्तु दुर्भाग्य से वो जोड़ा साधू किन्दम और उनकी पत्नी थी अतः उन्होंने पाण्डु को श्राप दिया  कि वो भी जब मारा जायेगा जब वो किसी स्त्री से रत होने लगेगा|राजा पाण्डु ने कुंती के अलावा मद्र देश की राजकुमारी माद्री से भी विवाह किया|
अपनी स्नायु तंत्र की कमजोरी को दूर करने  और किन्दम के वध के प्राश्चित के लिए पाण्डु ने अघोषित वनवास लिया जहाँ उसके साथ उसकी पत्नियाँ कुंती व माद्री भी थी|वहां कुंती ने अपने पति की पुत्र की कामना पूरी करने हेतु ऋषि दुर्वासा के मंत्र और "निरोध " द्वारा धर्म के आवहान करने पर युधिष्ठिर ,वायु देव के आवहान से भीम एवं इन्द्र के आवहान पर अर्जुन की उत्पत्ति की|चूकि "निरोध " द्वारा केवल तीन पुत्र ही धर्मसंगत थे अतः ये मंत्र कुंती ने माद्री को दिया जिससे माद्री ने  अश्विनी कुमारों के आवहान द्वारा नकुल और सहदेव को जन्म दिया|अतः पांच पांडव राजा पाण्डु के क्षेत्रज्ञ पुत्र कहलाये|
परन्तु एक दिन माद्री के स्नान करते हुए राजा पाण्डु कामारक्त हो गया तथा रति सुख को व्याकुल हो उठा |अपने पति की इस अवस्था को देख माद्री भी रति हो गयी और रत होने लगी परन्तु पाण्डु स्नायु तंत्र की कमजोरी को संभाल नहीं पाया और उसके प्राण पखेरू उड़ गए|
तत्पश्चात माद्री भी अपने पति की मृत्यु का दोषी स्वयं को मानते हुए राजा पाण्डु के साथ सती हो गयी|अब माता कुंती के कंधो पर पांचों पांडवों का भार आ गया |उन्होंने न केवल अपने पुत्रो का लालन पालन किया अपितु माद्री पुत्रो को भी स्नेहयुक्त ममता दी|कहते है कि नकुल और सहदेव को वो स्वयं अपने हाथों से खाना  खिलाती थी और जब लाक्षाग्रह में सुरंग से जाने की बारी तब भी उन्होंने नकुल और सहदेव को पहले भेजा |"वैसे माता केलिए पुत्र ,पुत्र ही होता है|चाहे पुत्र कोई भी हो"|
माता कुंती ने न केवल माता का कर्तव्य निभाया अपितु शिक्षक का भी|उन्होंने सदैव पांड्वो को धर्म का पाठ ही पढाया |और अन्याय के विरूद्ध लड़ना भी सिखाया |परन्तु उनका एक अभागा पुत्र ऐसा भी था जो माता कुंती का स्नेहयुक्त आँचल न पा सका|वो था राधेय कर्ण,जो एक तरह से शापित था अपनी ही पहचान और वीरता से|जब माता कुंती को पाता चला कि उनका एक पुत्र कर्ण अधर्म के साथ खड़ा है तब उन्होंने इसे नियति माना|और धर्म कि विजय हेतु पांडवो को कर्ण का वध करने की आज्ञा भी दी|अब कौन समझाए माता के हृदय को जो अपने पुत्र  को खोना नहीं चाहता किन्तु माता कुंती तो कुंती ही थी जो केवल धर्म के आगे पुत्र का बलिदान दे सकती थी|

कहने को तो माता कुंती ने धर्म विजय में कोई शस्त्र नहीं उठाया पर उनका काम था ऐसे पुत्रों का लालन पालन करना जो इस धर्म के भवन में मुख्य द्वारपाल और रक्षक थे|वैसे तो महाभारत की नीव पहले ही डल चुकी थी पर इस महाभारत में धर्म विजय की नीव माता कुंती ने अपने पुत्रो के सही और बेहतर लालन पालन से डाली|ऐसी माता कुंती ,जो अपने पुत्रो को केवल धर्म और न्याय के साथ खड़ा होना सिखा कर गयी ,को मेरा सादर नमन|
                                              धन्यवाद|