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इस ब्लॉग का मुख्य मकसद नयी पीढ़ी में नई और विवेकपूर्ण सोच का संचार करना है|आज के हालात भी किसी महाभारत से कम नहीं है अतः हमें फिर से अन्याय के खिलाफ खड़ा करने की प्रेरणा केवल महाभारत दे सकता है|महाभारत और कुछ सन्दर्भ ब्लॉग महाभारत के कुछ वीरो ,महारथियों,पात्रो और चरित्रों को फिर ब्लोगिंग में जीवित करने का ज़रिया है|यह ब्लॉग महाभारत के पात्रों के माध्यम से आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है|

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Wednesday, July 20, 2011

महाभारत और महारथी कर्ण :महाभारत ब्लॉग ९

महाभारत की पूरी कथा में इसके प्रत्येक किरदार का कुछ न कुछ योगदान अवश्य ही रहा है और प्रत्येक किरदार की किसी न किसी गुणधर्म विशेष के प्रति निष्ठा भी अवश्य रही है |जिस प्रकार कृष्ण की धर्म स्थापना में निष्ठा रही और युधिष्ठिर की धर्म पालन में,उसी प्रकार महारथी कर्ण की अपने मित्र दुर्योधन में निष्ठा ही इस युद्ध के अठारह दिन चलने और इतने सैनिकों और इतने महारथियों के विनाश का कारण बनी|वैसे इस महारथी की दुर्योधन के प्रति निष्ठा इसके शापित भाग्य और स्वयं इस के प्रति पूर्व में किये गए भेदभाव का परिणाम था परन्तु  इस दानवीर कर्ण को द्रोपदी वस्त्रहरण और अभिमन्यु वध के लिए इतिहास सदैव दोषी बताता रहेगा|पर जो  भी हो ,नियति का क्रूर मज़ाक जो इस महारथी के साथ हुआ है वो शायद वासुदेव कृष्ण को भी धर्म से अच्युत कर देता|पर जो वासुदेव कृष्ण धर्म की रक्षा के लिए अपने कुल का नाश भी स्वीकार करता हो उसे भला कौनसी शक्ति अपनी निष्ठा से भटका सकती है|

महारथी कर्ण का जन्म माता कुंती की कोख से सूर्य के वरदान स्वरुप हुआ था|परन्तु विवाह पूर्व  कर्ण का जन्म हो जाने के कारण कुंती ने अपने पिता के स्वाभिमान की रक्षा हेतु इस परम तेजस्वी एवं कुंडल और कवच धारी शिशु का परित्याग कर दिया और सूर्य देवता से मुआफ़ी मागते हुए उसे आशीर्वाद देकर नदी में प्रवाहित कर दिया|ये नियति का पहला पासा था जिसने  कर्ण को जन्म लेते ही मात दे दी|नदी में प्रवाहित ये शिशु एक निःसंतान दम्पति के हाथ लगा जिसने इसे अपने पास रख लिया और इस शिशु के माता-पिता बन गए |यह दम्पति वस्तुतः एक सूत जाति के थे जो हस्तिनापुर में निवास करते थे|सूत वो जिनका धर्म ही था रथ हाँकना|अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा और शापित भाग्य लिए ये लड़का धनुर्विद्या में महारथ हासिल किये हुए था|और इसी धनुर्विद्या का परीक्षण करने ये लड़का जब द्रोणाचार्य निर्मित शस्त्रशाला में गया और अर्जुन से चुनौती करने लगा तब अर्जुन और अन्य पांडवो ने इसे प्रतिस्पर्धा करने के अयोग्य माना क्योकि उनके मतानुसार एक सूत पुत्र राजकुमारों से प्रतिस्पर्धा कैसे कर सकता था?और तो और पांडवो ने उसे सूत पुत्र कह अपमानित किया और कहा-"सूत पुत्र को केवल रथ हाँकना ही शोभा देता है,क्षत्रिय राजकुमारों की तरह धनुष बाण नहीं|"
दुर्योधन जो उस समय किशोर अवस्था में था ,पांडवों से चिढ़ता था और पांडवों के कौशल को देख हीन भावना से ग्रसित था,ने उस लड़के कर्ण को देखा और उसके सामर्थ्य को भी|अतः इस परम राजनीतिज्ञ दुर्योधन ने कर्ण को प्रश्रय दिया तथा उसे अपना मित्र बना लिया|अपने अपमान से कुंठित कर्ण दुर्योधन जैसे राजकुमार का साथ पाकर अत्यंत प्रसन्न और कृतज्ञ  हुआ|और उस कर्ण को पांडवो और विशेष रूप से अर्जुन से घृणा सी हो गयी|

जब शिक्षा प्राप्त करने कर्ण द्रोणाचार्य के पास पहुचा तब गुरु द्रोणाचार्य ने उसे मना कर दिया और उसे अपनी जाति का कर्म करने को कहा अतः कर्ण ने मन में ठान लिया कि उसे द्रोणाचार्य जैसे ही गुरु से शिक्षा प्राप्त करनी है इसलिए वह गुरु परसराम के पास पहुचा जो केवल ब्राह्मणों को ही शस्त्र शिक्षा देते थे|अतः वो लड़का शिक्षा प्राप्त करने हेतु ब्राह्मण का छदम भेष धर गुरु परसराम से शिक्षा प्राप्त करने लगा|पर जब किसी कारण वश गुरु परसराम को उसके ब्राह्मण न होने का पता चला तब उसे फिर श्राप मिला कि-"हे छदम रूप धारी शिष्य ! जब तुम्हे मुझसे सीखी हुई विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी तब तुम इसे भूल जाओगे "|ये नियति का दूसरा पासा था जिसने इस युवक कर्ण को मात दे दी|
जब कर्ण शिक्षा प्राप्त कर हस्तिनापुर पहुचा तब कूटनीतिज्ञ दुर्योधन ने उसे मित्रता स्वरुप अंगदेश का राज्य दे दिया जिसे कर्ण ने स्वामी का सेवक के प्रति उपकार मानते हुए ग्रहण किया|वैसे तो दुर्योधन कर्ण को अपना सच्चा मित्र मानता था और उस पर अत्यधिक विश्वास भी करता था पर शायद कर्ण की मित्रता दुर्योधन के पांडवो से भयभीत होने के कारण फलीभूत हुई|
अपने जन्म के रहस्य से अनभिज्ञ इस महारथी ने अपने सूत माता पिता की खूब सेवा की और सूत माता राधा के नाम से 'राधेय' कहलाने लगा|राधेय कर्ण सही मायनों  में राधेय ही था क्योकि जन्म देना माता का कर्तव्य होता है पर लालन पालन करना माता का धर्म होता है और जो माता सही मायनों में दोनों कर्तव्यों का पालन करती हो वो शिशु की पूर्ण माता होती है|पर इस भौतिक संसार में जो माता शिशु का लालन पालन करती है  वो जन्म देने वाली माता से महान होती है|स्वयं देवकी नंदन कृष्ण 'यशोदानंदन ' कहने पर ज्यादा प्रसन्न होते है|
अंगदेश का राजा बनने के पश्चात् कर्ण ने कई युद्धों में अपनी वीरता प्रमाणित की|पर वीर कर्ण न केवल वीर था अपितु एक बड़ा दानी भी|कहते है कि भोर में कर्ण से जो कोई भी कुछ भी मांगता था वो कभी खाली हाथ नहीं जाता था|पर इस ख्याति के बाबजूद इस दानवीर कर्ण का अपमान होना रूक जाता तो इतिहास इस सुर्यपुत्र को कभी अधर्म के साथ होने  का दोषी न मानता पर जब द्रोपदी के स्वयंवर में जब महारथी कर्ण प्रतिज्ञा पूरी करने उतरा जब द्रोपदी ने इस 'सूतपुत्र ' को बाण चलाने से ये कहते हुए रोक लिया कि विवाह समान कुल में होता है किसी सूत पुत्र के साथ नहीं|और फिर इस अपमान ने कर्ण को द्रोपदी के प्रति भी घृणा भाव से भर दिया|
दुर्योधन और शकुनी की संगति ने दुर्योधन के इस घृणा भाव को प्रतिशोध में बदल दिया और अंततः जब एक वस्त्रा द्रोपदी को बालों से घसीटकर कुरु राज्य सभा में लाया गया तब कर्ण ने न केवल द्रोपदी वस्त्रहरण का समर्थन किया अपितु उसे पांच पुरुषों के साथ रहने वाली 'वेश्या ' कहा|और 'वेश्या 'का कोई सम्मान नहीं होता ,यह तर्क देकर वस्त्रहरण को उचित ठहराया|बस यही वो पल थे जब इस महारथी में धर्म का दमन छोड़ दिया और अपनी मत्यु की भूमिका तैयार कर ली|
चूकी कर्ण के पास सूर्य देव का दिया कवच और कुंडल था अतः युद्ध में कर्ण का वध असंभव था अतः वासुदेव कृष्ण ने प्रतिज्ञा के जाल में उलझा कर कर्ण के कवच -कुंडल लेने की योजना तैयार की और देवराज इन्द्र को ब्राहमण का रूप धर प्रातःकाल कवच और कुंडल लाने को कहा ताकि धर्म की विजय हो सके|पर दानवीर कर्ण ने कवच -कुंडल के बिना अपनी मत्यु जानते हुए भी कवच और कुंडल दान में दे दिए| 
पर युद्ध के आरंभ होते -होते यह दानवीर यह समझ चुका था कि वो इस युद्ध में अधर्म के पक्ष में है और जहाँ वासुदेव कृष्ण जैसा नीतिज्ञ हो उस पक्ष की विजय निश्चित है क्योकि वासुदेव  कृष्ण तो स्वयं उसी पक्ष में रहते है जहाँ धर्म का पलड़ा भारी होता है|परन्तु कर्ण को दुर्योधन से निष्ठा का रोग था जिसने उसकी विवेक बुद्धि को निगल लिया था और उसे दुर्योधन का क़र्ज़ उतारने के लिए विवश कर दिया था|
युद्ध के मध्य में जब उसे कुंती का अपनी माता होने और पांडवो का अपने भाई होने का पता चला तब भी दुर्योधन के अहसानों के बोझ तले दबा ये 'राधेय ' अपनी निष्ठा प्रमाणित करने हेतु पांडवों के विरुद्ध लड़ा|और माता कुंती को वचन दिया किया युद्ध के पश्चात् भी उसके पांच पुत्र शेष रहेगे चाहे वो मरे या अर्जुन |वो महारथी युद्ध भूमि में भी अर्जुन से लड़ा और कर्ण-अर्जुन युद्ध के पहले दिन उसने अर्जुन को निरुतर कर दिया पर सूर्य डूब जाने के कारण नियमानुसार अर्जुन का वध नहीं किया पर वासुदेव कृष्ण इस बात को समझ चुके थे कि बिना किसी नियम को तोड़े कर्ण वध संभव नहीं है अतः दुसरे दिन उन्होंने रथ का पहिया लगा रहे कर्ण पर अर्जुन से बाण चलवा कर कर्ण का वध करवा दिया|
मैं मानता हूँ कि वासुदेव कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने निहत्थे कर्ण को मार डाला पर क्या पहले कर्ण ने युद्ध नियम तोड़ कर अभिमन्यु को नहीं मारा था?और क्या धर्म एक कर्ण के कारण हार जाता?मेरे अनुसार धर्म की विजय जरूरी है चाहे हथकंडे नियमानुसार हो या न हो|जिस प्रकार कर्ण ने दुर्योधन के प्रति निष्ठा नहीं छोड़ी और अधर्म के पक्ष में लड़ा तो क्या वासुदेव कृष्ण धर्म स्थापना के प्रति अपनी निष्ठा छोड़ देते?चाहे कर्ण दानवीर हो या महारथी ,चाहे कौन्तेय रहे या राधेय परन्तु धर्म सबसे ऊपर ही रहेगा |
                                                                                            धन्यवाद|